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बहुश्रुतपूजा - बहुश्रुत का स्वरूप और माहात्म्य ****************AAAAAAAAAAAAkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
भावार्थ - जो शिष्य सदा गुरुकुल में (गुरु के गच्छ में-गुरु की आज्ञा में) रहता है तथा जो समाधि वाला, उपधान तप का आचरण करने वाला (अंग-उपांग सूत्र सीखते हुए शास्त्रोक्त यथायोग्य आयंबिल आदि उपधान तप का सेवन करने वाला) सभी के लिए प्रिय अर्थात् अनुकूल कार्य करने वाला और प्रिय भाषण करने वाला है, वह विनीत शिष्य शिक्षा प्राप्त करने के योग्य होता है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि वही शिष्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी होता है - १. जो सदा गुरुकुल - गुरु आज्ञा में रहता है २. जो योगवान् होता है ३. जो उपधान - शास्त्राध्ययन से संबंधित विशिष्ट तप करने वाला होता है ४. जो प्रिय करता है ५. जो प्रियभाषी है। - 'वसे गुरुकुले णिच्चं' अर्थात् सदैव गुरुओं-आचार्यों के कुल-गच्छ में रहे। यहाँ गुरुकुलवास का अर्थ गुरु आज्ञा में रहने का है। उत्तराध्ययन चूर्णि में कहा है -
णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दसणे चरिते य। धण्णा आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति।।
अर्थात् गुरुकुल में रहने से साधक ज्ञान का भागी होता है। दर्शन और चारित्र में स्थिरतर होताहै अतः वे धन्य हैं जो जीवन पर्यंत गुरुकुल नहीं छोड़ते। . बहुश्रुत का स्वरूप और माहात्म्य
१. शंख की उपमा जहा संखम्मि पयं णिहियं, दुहओ वि विरायइ। एवं बहुस्सुए भिक्खू, धम्मो कित्ती तहां सुयं ॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - संखम्मि - शंख में, पयं - दूध, णिहियं - रखा हुआ, दुहओ विदोनों प्रकार से, विरायइ - सुशोभित होता है, धम्मो - धर्म, कित्ती - कीर्ति, सुयं - श्रुत।
भावार्थ - जैसे शंख में रखा हुआ दूध दोनों प्रकार से (अपनी श्वेतता और मधुरता आदि गुणों से) शोभा पाता है (दूध शंख में रह कर विकृत नहीं होता, किन्तु विशेष उज्वल दिखाई देता है) इसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति तथा श्रुत शोभा पाते हैं अर्थात् ये गुण स्वयं
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