Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - दसवां अध्ययन *************************************************************
कठिन शब्दार्थ - लभ्रूण - प्राप्त कर, माणुसत्तणं - मनुष्य जन्म के, आरियत्तणं - आर्यत्व - आर्य देश का मिलना, पुणरावि - फिर भी, दुल्लहं - दुर्लभ, दसुया - चोर, मिलक्खुया - म्लेच्छ।
भावार्थ - उपरोक्त प्रकार से अति दुर्लभ मनुष्य भव प्राप्त कर के भी आर्य अवस्था (आर्य देश में जन्म प्राप्त होना), फिर भी कठिन है क्योंकि मनुष्यों में भी बहुत से चोर और म्लेच्छ होते हैं, जिन्हें धर्म-अधर्म का विवेक नहीं होता। अतएव हे गौतम! एक समय का भी प्रमाद मत कर।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि पुण्य उदय से किसी को मनुष्य-जन्म मिल भी गया तो उसको आर्यदेश का मिलना अति दुर्लभ है, क्योंकि आर्य देशों का प्रमाण साढे पच्चीस देशों का ही है। इसके बाहर के मनुष्य अनार्य संज्ञा वाले हैं। अनार्य मनुष्यों का जीवन प्रायः आर्य-धर्म के अनुकूल नहीं है। अतः मनुष्य-जन्म प्राप्त कर धर्म में प्रमाद नहीं करना चाहिये।
सम्पूर्णेन्द्रियता की दुर्लभता लभ्रूण वि आरियत्तणं, अहीण पंचिंदियया हु दुल्लहा। विगलिंदियया हु दीसइ, समयं गोयम! मा पमायए॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - अहीण - सम्पूर्ण, पंचेंदियया - पंचेन्द्रियपन, विगलिंदियया - विकलेन्द्रियपन, दीसइ - देखा जाता है।
__ भावार्थ - मनुष्य भव और आर्यदेश में जन्म प्राप्त कर के भी पांचों इन्द्रियों का पूर्ण होना निश्चय ही दुर्लभ है, क्योंकि बहुत से मनुष्यों में भी इन्द्रियों की विकलता देखी जाती है
और इस कारण वे धर्माचरण करने में असमर्थ रहते हैं। अतएव हे गौतम! एक समय का भी प्रमाद मत कर।
विवेचन - मनुष्य भव में प्रथम तो इन्द्रियों की सम्पूर्णता मिलनी ही कठिन है और यदि वह मिल भी जावे तो फिर रोगादि विशेष से इसके उपघात होने का भय है अतः जिन पुण्यवान् • जीवों को यह सामग्री मिल गई है उन्हें तो कदापि प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिये।
हु दुल्लहा
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