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द्रुमपत्रक - स्नेह परित्याग
१७१ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ विशूचिका, आयंका - आतंक-रोग, विविहा - नाना प्रकार के, फुसंति - स्पर्श करते हैं, विहडइ - बल गिरता है, विद्धंसइ - विध्वंस होता है, सरीरयं - शरीर।
भावार्थ - मानसिक उद्वेग गाँठ-फोड़े-फुन्सी अजीर्ण अथवा विशूचिका (हैजा) और अनेक प्रकार के तत्काल घात करने वाले रोग तुम्हें लग रहे हैं। ये रोग तुम्हारे शरीर को बलहीन करते हैं और नाश कर देते हैं। अतएव हे गौतम! एक समय का भी प्रमाद मत कर।
विवेचन - रोगों के आक्रमण से शरीर अत्यन्त निर्बल हो जाता है और जीवन से भी रहित हो जाता है अतः जब तक किसी भयंकर रोग का आक्रमण नहीं होता तब तक पूरी सावधानी से धर्म कार्य में लगे रहना चाहिये।
स्नेह परित्याग वुच्छिंद सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं। से सव्वसिणेह-वज्जिए, समयं गोयम! मा पमायए॥२८॥
कठिन शब्दार्थ - वुच्छिंद - दूर कर, सिणेहं - स्नेह को, अप्पणो - अपनी आत्मा से, कुमुयं - कुमुद - चन्द्र विकासी कमल, सारइयं - शरद ऋतु में होने वाला, पाणियं - जल को छोड़ कर, सव्व - सभी, सिणेहवजिए - स्नेह वर्जित। ___भावार्थ - शरद ऋतु में होने वाला चन्द्र विकासी कमल, जल में उत्पन्न हो कर और बढ़ कर भी जैसे जल से पृथक् रहता है उसी प्रकार मोहक पदार्थ एवं स्वजनादि विषयक, स्नेह को अपनी आत्मा से हटा दो और सभी प्रकार के स्नेह को दूर हटाने में हे गौतम! एक समय के लिए भी प्रमाद मत कर।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में जो शरदऋतु के कमल की उपमा दी है, उसका आशय यह है कि शरद् ऋतु का जल अत्यंत शीतल, निर्मल और मनोहर होता है किन्तु कमल उससे भी पृथक् रहता अर्थात् उसमें लिप्त नहीं होता। उसी प्रकार स्नेह को दूर करके कमल की भांति पृथक् रहने का यत्न करना चाहिये क्योंकि स्नेह - राग मोक्ष का प्रतिबंधक होता है। ___ यद्यपि गौतम स्वामी पदार्थों में मूर्च्छित नहीं थे, न विषय भोगों में उनकी आसक्ति थी, उन्हें सिर्फ भगवान् के प्रति स्नेह - अनुराग था और वह प्रशस्त राग था। वीतराग भगवान् नहीं चाहते थे कि कोई उनके प्रति स्नेह बंधन से बद्ध रहे। अतः भगवान् ने गौतम स्वामी को उस स्नेह तंतु को विच्छिन्न करने के उद्देश्य से उपदेश दिया हो, ऐसा प्रतीत होता है। भगवती सूत्र शतक १४ उद्देशक ७ में भी इस स्नेह बंधन का भगवान् ने उल्लेख किया है।
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