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उत्तराध्ययन सूत्र - दसवां अध्ययन
मरण कर सकते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य मर कर उन्हीं स्थानों में उत्कृष्ट आठ भव कर सकते हैं। ऐसा भगवती सूत्र के चौबीसवें शतक में बताया गया है। इस अध्ययन की चौथी गाथा के अनुसार मनुष्य भव की दुर्लभता बताई जा रही है तथा चौदहवीं गाथा में देव और नारकी जीवों का कथन है । इस तेरहवीं गाथा में यद्यपि 'पंचिंदिय कायं' यह शब्द दिया है परन्तु यहाँ पंचेन्द्रिय शब्द से तिर्यंच पंचेन्द्रिय ही समझना चाहिये । तिर्यंच पंचेन्द्रिय मरकर फिर तिर्यंच पंचेन्द्रिय बने, इस तरह आठ भव कर सकता है। उसकी उत्कृष्ट स्थिति बने तो ७ भव तो कर्म भूमि के एक करोड़ पूर्व-एक करोड़ पूर्व के कर सकता है और आठवाँ भव तीन पल्योपम की स्थिति वाला युगलिक का कर सकता है। इस प्रकार तिर्यंच पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट कायस्थिति सात करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम की बन सकती है।
प्रश्न इस गाथा में तिर्यंच पंचेन्द्रिय के आठ भव न देकर सात आठ ऐसा क्यों दिया है ? उत्तर - तिर्यंच पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति बतलाने के लिए 'सात भव कर्म भूमि के और आठवाँ भव युगलिक का' यह बतलाने के लिए 'सत्तट्ठ' शब्द का प्रयोग किया गया है। यदि ऐसा है तो आठ ही भव युगलिक के कर लेवे तो कायस्थिति बहुत उत्कृष्ट बन सकती है?
प्रश्न
उत्तर
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नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि युगलिक मर कर तो देव ही होता इसलिए युगलिक की कायस्थिति नहीं बन सकती है। युगलिक की जो भवस्थिति है वही उसकी कायस्थिति है। देव, नारक की तरह युगलिक मरकर युगलिक नहीं होता है।
देव और नैरयिक की स्थिति
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देवे रइए य अगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
इक्केक्क-भवग्गहणे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - देवे - देव, णेरइए नरक गति को - नैरयिकों में, इक्केक्क एक-एक, भवग्गहणे - भव करता है।
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भावार्थ - देव और नरक गति को प्राप्त हुआ जीव वहाँ उत्कृष्ट एक ही भव तक रहता है, अतएव हे गौतम! समय मात्र भी प्रमाद मत कर।
विवेचन - यदि यह जीव देव बन गया अथवा नरक में चला गया तो अधिक से अधिक एक ही भव कर सकता है क्योंकि देवता मर कर देवता नहीं बनता और नारकी जीव मर कर
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