Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - दसवां अध्ययन **************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkaaaaa****** बहुत से जीवों को मोहनीय कर्म का विशिष्ट उदय होने से तत्त्वश्रद्धा नहीं हो पाती है, अतः धर्मकार्य में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये।
धर्माचरण की दुर्लभता धम्मं पि हु सद्दहंतया, दुल्लहया काएण फासया। इहकाम-गुणेहिं मुच्छिया, समयं गोयम! मा पमायए॥२०॥
कठिन शब्दार्थ - सहहंतया - श्रद्धा करता हुआ, काएण - काया से, फासया - स्पर्श करना, कामगुणेहिं - काम गुणों में, मुच्छिया - मूर्छित। ..
भावार्थ - धर्म पर श्रद्धा रखते हुए भी शरीर एवं मन, वचन से आचरण करने वाले निश्चय ही दुर्लभ हैं (विरले ही मिलते हैं) क्योंकि अधिकांश मनुष्य यहाँ शब्दादि काम-गुणों में मूर्च्छित हैं। अतएव हे गौतम! एक समय का भी प्रमाद मत कर। ___ विवेचन - प्रभु फरमाते हैं कि बहुत से जीव सर्वज्ञ कथित धर्म में श्रद्धा रखते हुए भी उसका आचरण नहीं कर सकते क्योंकि जीव कामगुणों से अधिक मूर्छित हो रहे हैं। अतः धर्म के आचरण में वे उद्यत नहीं होते।
इन्द्रिय बलों की क्षीणता परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते। . से सोय-बले य हायइ, समयं गोयम! मा पमायए॥२१॥
कठिन शब्दार्थ - परिजूरड़ - जीर्ण होता है, केसा - केश, पंडुरया - श्वेत, हवंति - होते हैं, सोयबले - श्रोत्रेन्द्रिय का बल, हायइ - हीन (क्षीण) होता जा रहा है।
भावार्थ - वृद्धावस्था अथवा रोगादि कारणों से तुम्हारा शरीर जीर्ण हो रहा है। तुम्हारे केश श्वेत (सफेद) हो रहे हैं और वह श्रोत्रेन्द्रिय का बल (श्रवण-शक्ति) क्षीण होता जा रहा है। अतएव हे गौतम! एक समय का भी प्रमाद मत कर!
विवेचन - गौतम स्वामी को लक्ष्य में रख कर प्राणी मात्र की शरीर की अनित्यता का प्रतिपादन करते हुए प्रभु फरमाते हैं कि - हे गौतम! तेरा शरीर सर्व प्रकार से जीर्ण हो रहा है क्योंकि क्य की हानि प्रति समय हो रही है अतएव जो केश पहले काले थे वे अब श्वेत हो गये और श्रोत्रेन्द्रिय बल (सुनने की शक्ति) भी क्षीण होता जा रहा है अतः प्रमाद नहीं करना चाहिये।
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