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नमि प्रव्रज्या - उपसंहार
१५५ Twidtiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiit
भावार्थ - घर बार कुटुम्ब एवं राज्यादि को छोड़ कर श्रमण बने हुए विदेह देश के अधिपति नमिराजर्षि की साक्षात् इन्द्र ने परीक्षा की, किन्तु वे संयम से लेशमात्र भी विचलित नहीं हुए और साक्षात् इन्द्र को अपने चरणों में वंदना करते हुए देख कर भी उन्होंने गर्व नहीं किया, प्रत्युत अपनी आत्मा को विशेष नम्र बनाया।
विवेचन - सच्चे महात्मा पुरुष किसी बड़े पुरुष की वंदन स्तुति से अभिमान में आने की बजाय और भी विनम्र हो जाते हैं। यही उनके आत्मिक गुणों के उत्तरोत्तर विकास का हेतु है इसी कारण देवेन्द्र की स्तुति प्रार्थना से अपनी आत्मा में किसी प्रकार का भी अभिमान न लाते हुए राजर्षि नमि ने अपनी आत्मा को पहले से भी अधिक नम्र बना दिया।
- उपसंहार एवं करेंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। विणियटुंति भोगेसु, जहा से णमी रायरिसी॥६२॥ त्ति बेमि॥
|| णमिपव्वज्जा णामं णवम अज्झयणं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - संबुद्धा - संबुद्ध (तत्त्ववेत्ता - ज्ञानीजन), पंडिया - पंडित, पवियखणा - विचक्षण साधक, विणियटुंति - निवृत्त होते हैं, भोगेसु - कामभोगों से।
भावार्थ - तत्त्व को जानने वाले विचक्षण पंडित पुरुष नमिराजर्षि के समान संयम पालने में निश्चल रहते हैं और काम भोगों से निवृत्त होते हैं, जैसे वे नमिराजर्षि भोग-विलास से निवृत्त हुए थे। ऐसा मैं कहता हूँ। - विवेचन - जो पुरुष संयम ग्रहण करने के बाद अपने आध्यात्मिक विचारों को पूर्ण रूप से पुष्ट करते हुए तदनुकूल आचरण करने में निःशंक और निर्भय होते हैं उनको निर्वाण पद की प्राप्ति अवश्यंभावी होती है। यही इस गाथा का फलितार्थ है।
. इस प्रकार श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं इत्यादि पूर्वानुसार समझ लेना चाहिये।
॥ इति नमि प्रव्रज्या नामक नौवाँ अध्ययन समाप्त॥
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