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उत्तराध्ययन सूत्र - नौवां अध्ययन **************************************************************
भावार्थ - हे राजन्! आश्चर्य है कि आप प्राप्त हुए इन अद्भुत भोगों को छोड़ रहे हैं और अविद्यमान दिव्य काम भोगों की अभिलाषा कर रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि अदृष्ट भोगों के न मिलने से संकल्प-विकल्पों के वशीभूत होकर तुम्हें पश्चात्ताप करना पड़े।
नमि राजर्षि का उत्तर एयमढें णिसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ णमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी॥५२॥
भावार्थ - शक्रेन्द्र का पूर्वोक्त अर्थ - प्रश्न सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि देवेन्द्र से इस प्रकार कहने लगे।
सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे य पत्थेमाणा, अकामा जंति दुग्गइं॥५३॥
कठिन शब्दार्थ - सल्लं - शल्य रूप, कामा - काम भोग, विसं - विष रूप, आसीविसोवमा - आशीविष सर्प के समान, पत्थेमाणा - अभिलाषा करते हुए, अकामा - काम रहित, दुग्गई - दुर्गति को, जंति - जाते हैं।
भावार्थ - काम भोग शल्य रूप हैं। काम भोग विष रूप हैं। काम भोग आशीविष सर्प के समान हैं। काम-भोगों की अभिलाषा करने वाले पुरुष काम-भोग का सेवन न करते हुए भी केवल संकल्प मात्र से ही दुर्गति प्राप्त करते हैं।
विवेचन - नमिराजर्षि कहते हैं कि हे ब्राह्मण ! जैसे शरीर में लगा हुआ शल्य (बाण का. अग्रभाग) दुःख देता है, इसी प्रकार ये काम-भोग दुःखदायी हैं। जैसे तालपुट विष खाने में मीठा लगता है, किन्तु अन्त में मृत्यु के मुख में पहुंचा देता है, इसी प्रकार ये कामभोग, भोगते समय मनोहर प्रतीत होते हैं, किन्तु अन्त में अनेक दुःखों को उत्पन्न करते हैं। जैसे विषधर सर्प फण ऊँचा कर के नाचते समय अच्छा मालूम होता है, परन्तु डस लेने पर प्राण संकट में पड़ जाते हैं। इसी प्रकार काम-भोग पहले तो मनोहर और सुखप्रद मालूम होते हैं किन्तु सेवन करने के बाद अनेक भयंकर दुःख देते हैं। ऐसे काम-भोगों का सेवन करना तो दूर रहा, किन्तु इनकी इच्छा करने से ही मनुष्य नरक आदि दुर्गतियों को प्राप्त होता है। इसलिए हे विप्र! मैंने उत्तम कामभोग पाने की इच्छा से वर्तमान में प्राप्त हुए भोगों का त्याग नहीं किया है, किन्तु वर्तमान
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