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उत्तराध्ययन सूत्र - नौवां अध्ययन *************************************************************
विवेचन - नमिराजर्षि के अन्तःकरण में द्वेष है या नहीं, इस बात की परीक्षा करने के लिए इन्द्र ने प्रश्न किया है कि हे राजन्! जो राजा तुम्हारी आज्ञा नहीं मानते, उन्हें वश में कर के पीछे दीक्षा लेना तुम्हें योग्य है। अन्यथा वे शत्रु राजा तुम्हारे राज्य को छिन्न-भिन्न कर देंगे अथवा तुम्हारे पुत्र को अपने अधीन बना लेंगे। इससे अच्छा यही है कि तुम पहले शत्रु राजाओं को अपने वश में कर लो, क्योंकि भरत आदि राजाओं ने भी शत्रुओं को अपने वश में कर के पीछे दीक्षा ली है। अतः तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिए।
.. . नमि राजर्षि का उत्तर एयमढे णिसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ णमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी॥३३॥
भावार्थ - शक्रेन्द्र का पूर्वोक्त अर्थ - प्रश्न सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि देवेन्द्र से इस प्रकार कहने लगे।
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ॥३४॥
कठिन शब्दार्थ - सहस्सं सहस्साणं - हजार को हजार से गुणा करने पर (दस लाख), पंगामे - संग्राम में, दुजए - दुर्जय, जिणे - जीतता है, एगं - एक, जिणेज - जीत ले, अप्पाणं - आत्मा को, परमो जओ - परम विजय।
भावार्थ - जो पुरुष दुर्जय संग्राम में दस लाख सुभटों पर विजय प्राप्त करता है और एक महात्मा अपनी आत्मा को जीतता है। इन दोनों में उस महात्मा की यह विजय ही श्रेष्ठ विजय है।
विवेचन - अन्य शत्रु राजाओं को जीतने की अपेक्षा आत्मा को जीतना ही वीरता है। जिसने दूसरों को जीत लिया, किन्तु अपनी आत्मा को नहीं जीता, वह सच्चा वीर नहीं हैं, क्योंकि विषय-कषायादि में प्रवृत्त हुई आत्मा ही दुःख का कारण है, दूसरे पदार्थ नहीं।
अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं, जिणित्ता सुहमेहए॥३५॥
कठिन शब्दार्थ - अप्पाणं - आत्मा के साथ, एव - ही, जुज्झाहि - युद्ध करो, जुज्झेणयुद्ध से, बज्झओ - बाहर के, जिणित्ता - जीत कर, सुहं - सुख को, एहए - पाता है।
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