Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
नमि प्रव्रज्या - नौवां प्रश्न-हिरण्यादि भंडार की वृद्धि करने के संबंध में
१४७
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
नमि राजर्षि का उत्तर एयमढें णिसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ णमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी॥४३॥
भावार्थ - शक्रेन्द्र का पूर्वोक्त अर्थ - प्रश्न सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि देवेन्द्र से इस प्रकार कहने लगे।
मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए। ण सो सुअक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं॥४४॥
कठिन शब्दार्थ - मासे मासे - महीने महीने के, बालो - बाल (अज्ञानी), कुसग्गेणंकुशाग्र मात्र, भुंजए - आहार करता है, सुअक्खाय - सुविख्यात, धम्मस्स - धर्म की, कलं - कला को भी,.ण अग्घइ - प्राप्त नहीं होता, सोलसिं - सोलहवीं। _____ भावार्थ - जो अज्ञानी पुरुष प्रतिमास यानी एक एक मास का अनशन कर पारणे के दिन कुशाग्र परिमाण आहार करता है, वह पुरुष तीर्थंकर देव द्वारा प्ररूपित चारित्र धर्म की सोलहवीं कला के समान भी नहीं है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में नमि राजर्षि ने स्वाख्यात मुनिधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। क्योंकि जिसमें साधु धर्म स्वीकार करने की शक्ति न हो, वही गृहस्थ में रहता हुआ श्रावक धर्म अंगीकार करता है, परन्तु साधु धर्म के आगे गृहस्थाश्रम का त्याग अत्यन्त न्यून है। नववां प्रश्न-हिरण्यादि भंडार की वृद्धि करने के संबंध में
एयमढे णिसामित्ता, हेउकारणचोइओ। तओ णमि रायरिसिं, देविंदो इणमब्बवी॥४५॥
भावार्थ - नमि राजर्षि के उत्तर देने के बाद पूर्वोक्त अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमिराजर्षि से यह कहा।
हिरण्णं सुवण्णं मणिमुत्तं, कंसं दूसंच वाहणं। कोसं च वहावइत्ताणं*, तओ गच्छसि खत्तिया॥४६॥
* पाठान्तर - वहइत्ताणं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org