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नमि प्रव्रज्या - नमिराज का अभिनिष्क्रमण
१३३ ****************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk के अर्थ में प्रयुक्त हुआहै। जैसे कि भगवती सूत्र के शतक ५ उद्देशक ६ में अनुत्तर विमान के देवों के लिए उवसंतमोहा' शब्द का प्रयोग होते हुए भी वहाँ पर ११ वें गुणस्थान के समान मोह उपशांत नहीं हैं। किन्तु उन देवों में मनोविकार आदि भी नहीं होने से 'मोह की मन्दता' की दृष्टि से 'उवसंतमोहा' कहा गया है। ___ इस अध्ययन में भी जातिस्मरण को औपशमिक ज्ञान नहीं कहा है। नन्दीसूत्र आदि से जाति स्मरण ज्ञान व अज्ञान का मतिज्ञान व मतिअज्ञान रूप होना स्पष्ट हो जाता है। अतः मतिज्ञान के भेदों में होने से जातिस्मरण ज्ञान भी क्षायोपशमिक ज्ञान है। यहाँ इस प्रसङ्ग मेंचूड़ियों की खनखनाहट से अशान्त बने हुए नमिराजा ने चूड़ियों की आवाज के प्रति अरुचि प्रकट करने पर रानियाँ सौभाग्य सूचक एक-एक चूड़ी हाथों पर रख कर शेष सभी चूड़ियाँ उतार देती हैं। फिर चंदन घिसना बन्द कर दिया है क्या? ऐसा पूछने पर उत्तर मिला कि - 'घिसना चालू है पर हाथों में एक-एक चूड़ी ही होने से आवाज नहीं आ रही है।' इस उत्तर पर विचार करने से 'अकेले में ही सुख है। जहाँ अनेक हैं वहाँ संघर्ष हैं। ऐसा सोचकर नमिराजा राज्य से विरक्त हो जाते हैं। आसक्ति मन्द (कम) हो जाती है। इसी को बताने के लिए 'उपशांत मोहनीय' विशेषण दिया है। चारित्र मोह (कषाय एवं नोकषाय) के मन्द होने पर - "एकला (अकेलेपन) में ऐसी शान्ति मैंने अन्यत्र भी अनुभव की है।" इस पर ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए नमिराजा को मतिज्ञान के भेद रूप क्षायोपशमिक जातिस्मरण ज्ञान हुआ। यह . बात बतलाने के लिए शास्त्रकार ने 'उवसंत मोहणिजो' शब्द दिया है।
नमिराज का अभिनिष्क्रमण 'जाइं सरित्तु भयवं, सहसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे। पुत्तं ठवित्तु रज्जे, अभिणिक्खमइ णमी राया॥२॥
कठिन शब्दार्थ - जाई - पूर्व जन्म को, सरितु - स्मरण कर के, भय - भगवान्, सहसंबुद्धो - स्वयं सम्बुद्ध, अणुत्तरे - अनुत्तर, धम्मे - धर्म, पुत्तं - पुत्र को, ठवित्तु - स्थापित करके, रज्जे - राज्य में, अभिणिक्खमइ - दीक्षा के लिए निकलता है।
भावार्थ - पूर्वभव का स्मरण कर के भगवान् नमिराज स्वयमेव बोध को प्राप्त हुए और पुत्र को राज्यगद्दी पर स्थापित कर के सर्वश्रेष्ठ श्रुतचारित्र रूप धर्म के सम्मुख हो कर गृहस्थावस्था से निकले।
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