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उत्तराध्ययन सूत्र - नौवां अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
भावार्थ - श्रद्धा रूप नगर, क्षमा आदि दस धर्म रूप दृढ़ कोट और. तप-संवर रूप अर्गला (भोगला) बना कर कर्म रूप शत्रुओं से दुर्जेय तीन गुप्तियों से उस कोट की रक्षा करनी चाहिए।
विवेचन - नमि राजर्षि कहते हैं कि हे विप्र! मैंने श्रद्धा रूप नगर बनाया है। प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्था ये पांच उस नगर के द्वार हैं। क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस धर्म रूपी दृढ़ कोट बनाया है। अनशन आदि छह प्रकार का बाह्य तप तथा आस्रव निरोध रूप संवर को उसके लिए आगल सहित किंवाड़ बनाये हैं। मनगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति रूप बुर्ज, खाई और तोपें तैयार की हैं। इस प्रकार मेरा नगर दुर्जेय है। कर्मरूपी शत्रु मेरे नगर में प्रवेश
नहीं कर सकते।
धणुं परक्कम किच्चा, जीवं च ईरियं सया। धिइंच केयणं किच्चा. सच्चेण पलिमंथए॥२१॥
कठिन शब्दार्थ - धj - धनुष, परक्कम - पराक्रम रूप, जीवं - जीवा (प्रत्यंचा), ईरियं - ईर्यासमिति रूप, धिइं - धृति रूप, केयणं - केतन (मूठ), सच्चेण - सत्य से, परिमंथए - बांधे।
भावार्थ - उक्त नगर की रक्षा के लिए साधु को सदा पराक्रम रूपी धनुष और ईर्यासमिति को धनुष की डोरी बना कर और धीरज को केतन अर्थात् धनुष के मध्य में पकड़ने का काष्ठ का मुठिया करके सत्य द्वारा उसे बांधना चाहिये।
तवणारायजुत्तेणं, भित्तूणं कम्मकंचुयं। मुणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चए॥२२॥
कठिन शब्दार्थ - तवणारायजुत्तेणं - तप रूपी बाण से युक्त, भित्तूणं - भेदन करके, कम्मकंचुयं - कर्म रूपी कवच को, विगयसंगामो - बाह्य संग्राम से रहित होकर, भवाओ - संसार से, परिमुच्चए - मुक्त हो जाता है।
भावार्थ - उक्त पराक्रम रूप धनुष में तप रूए बाण चढ़ा कर और कर्म रूप कवच का भेदन करके मुनि संग्राम से निवृत्त होकर संसार से मुक्त हो जाता है।
विवेचन - नमि राजर्षि कहते हैं कि हे ब्राह्मण! कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करने के लिए मैंने पराक्रम रूपी धनुष पर छह प्रकार का आभ्यंतर तप रूपी बाण चढ़ा रखा है। कर्म शत्रुओं का नाश करने पर फिर कोई युद्ध करना शेष नहीं रहता। फिर शीघ्र ही मोक्ष की
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