Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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औरभ्रीय - मनुष्यत्व प्राप्त जीव
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आवइ - प्राप्त होती है, वहमूलिया - वध मूलिका - महारंभ आदि जिसके मूल कारण है अथवा, वध - विनाश जिसके मूल में है, लोलया - लोलुपता, सढे - शठता। ____ भावार्थ - अज्ञानी जीव को दो प्रकार की अर्थात् नरक और तिर्यंच गति प्राप्त होती है। वे गतियाँ, वध-बन्धन आदि मूल वाली है अर्थात् वध-बन्धन आदि कारणों से ये गतियां प्राप्त होती है और इन गतियों में जीव वध-बन्धन आदि कष्ट प्राप्त करता है। क्योंकि मांसादि की लोलुपता और शठता-धूर्तता वाला वह प्राणी देवत्व और मनुष्यत्व को हार गया है।
दुर्गति में जाने वाले जीव तओ जिए सई होइ, दुविहं दुग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मग्गा, अद्धाए सुइरादवि॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - जिए - हारा हुआ, सई - सदा, दुग्गई - दुर्गति का, गए - प्राप्त, उम्मग्गा. - निकलना, अद्धाए - दुर्गतियों में से, सुइरादवि - दीर्घकाल तक।
भावार्थ - इसके बाद देवत्व और मनुष्यत्व से हारा हुआ वह अज्ञानी जीव सदा के लिए दो प्रकार की दुर्गति (नरक और तिर्यंच गति) को प्राप्त होता है। उसका बहुत लम्बे काल में भी दुर्गतियों में से निकलना दुर्लभ है। ..
विवेचन - देवत्व और मनुष्यत्व से हारे हुए जीवों की दो प्रकार की गति होती है - १. नरक और २. तिर्यंच। दोनों ही दुर्गतियों में वध आदि अनेक प्रकार से दुःख हैं जिन्हें दीर्घकाल तक भुगतना पड़ता है।
मनुष्यत्व प्राप्त जीव एवं जियं सपेहाए, तुलिया बालं च पंडियं। मूलियं ते पविस्संति, माणुस्सं जोणिमिति जे॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - सपेहाए - सम्प्रेक्ष्य - सम्यक् प्रकार से देख विचार करके, तुलिया - तुलना करके, मूलियं - मूलपूंजी में, पविस्संति - प्रवेश करते हैं, जोणिं - योनि को, इंति - प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - इस प्रकार देव और मनुष्य गति को हारे हुए अज्ञानी जीव की और देव और
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