Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कापिलीय - स्त्री संसर्ग त्याग
१२६ Akkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
विवेचन - जैसे राक्षसी मनुष्य का खून पी कर उसका जीवन हरण कर लेती है, इसी प्रकार चंचलचित्त कुलटा स्त्रियाँ भी पुरुष का स्वास्थ्य नष्ट कर उसे निःसत्व कर डालती हैं, यही नहीं ज्ञानादि स्वरूप तात्त्विक जीवन का भी ये नाश कर देती हैं। मोहक हाव-भाव तथा मधुर वचनों से पुरुष को लुभा कर अपने वश में कर लेती है और इसके बाद उसके साथ दास जैसा अपमानपूर्ण व्यवहार करती हैं।
इस गाथा में स्त्रियों को राक्षसी का उपमा दी गई है। इसके द्वारा उनकी निंदा नहीं करके वास्तविक स्थिति को प्रदर्शित किया गया है। स्त्रियाँ तो निमित्त मात्र हैं उनके उपलक्षण से विषयों की भयंकरता बताई गई है। पुरुषों का मन उनकी तरफ आकर्षित न हो इस उद्देश्य से स्त्रियों के लिए 'राक्षसी' विशेषण लगाया है। यदि स्त्रियों को राक्षसी कहा है तो पुरुष स्वतः राक्षस हो जाते हैं। अतः यहाँ पर स्त्री पुरुष दोनों की निंदा का आशय नहीं होकर विषयों से विरक्त होने का कथन किया गया है।
यहाँ पर सभी स्त्रियों के लिए राक्षसी विशेषण नहीं है। वासनाप्रधान, कपट की खान और चंचलचित्त नारी राक्षसीरूपा है। ब्रह्मचारी साधक उन्हें संयम के लिए भयस्थली समझ कर उनसे सावधान रहे। इसी दृष्टि से कथन किया है। वास्तव में जो महिलाएं शीलवती, व्रतधारी, सती एवं वैराग्यवती हैं, वे न तो वासनाप्रिय होती हैं, न ही अनेक चित्तवाली या कपट से युक्त। ऐसी महिलाओं के लिए यह कथन नहीं है।
णारीसु णोवगिज्झिज्जा, इत्थी विप्पजहे अणगारे। धम्मं च पेसलं णच्चा, तत्थ ठवेज भिक्खू अप्पाणं॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - णारीसु - स्त्रियों में, णोवगिज्झिज्जा - मूर्च्छित न होवे, विप्पजहेछोड़ देवे, पेसलं - सुंदर, अप्पाणं - अपनी आत्मा को।
भावार्थ - गृहस्थाश्रम को छोड़ कर संयमी बना हुआ भिक्षु स्त्रियों में कभी भी आसक्ति भाव न रखे किन्तु स्त्री संग त्याग कर उससे सदैव दूर ही रहे तथा इहलोक और परलोक में धर्म को ही हितकारी जान कर धर्म में अपनी आत्मा को स्थापित करे।
_ विवेचन - संयमशील साधु को ब्रह्मचर्य रूप सर्वोत्तम धर्म में ही अपनी आत्मा को सर्वथा स्थिर रख कर मोक्ष सुख की प्राप्ति में प्रयत्नशील बनना चाहिए।
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