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उत्तराध्ययन सूत्र - आठवां अध्ययन ****kutakkarutakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk****
अर्थात् - जिस प्रकार अग्नि, तृण काष्ठ आदि से तृप्त नहीं होती और समुद्र नदियों से तृप्त नहीं होता उसी प्रकार यह आत्मा भी धन आदि बाह्य पदार्थों से कभी तृप्ति को प्राप्त नहीं होती है।
तृष्णा क्यों शांत नहीं होती? जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवडइ। दो मासकयं कजं, कोडीए वि ण णिट्ठियं॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - लाहो - लाभ, लोहो - लोभ, पवड्डइ - बढ़ता है, दो मासकयं - दो मासे से होने वाला, कजं - कार्य, कोडीए वि - करोड़ों से भी, ण णिट्ठियं - निष्ठितनिष्पन्न नहीं हुआ।
- भावार्थ - ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। लाभ से लोभ की वृद्धि होती है, कपिल मुनि का दो माशा सोने से होने वाला कार्य लोभ वश कसेड़ मोहरों से भी पूरा नहीं हुआ।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में कपिल केवली ने अपने निजी वृत्तान्त का उदाहरण देकर आत्मा की दुष्पूर्णता - अतृप्ति का सुन्दर चित्रण किया है। लाभ से लोभ बढ़ता जाता है जो आत्मा यथालाभ में संतोष मान कर निश्चिंत रहते हैं वे ही वास्तव में सुखी हैं।
स्त्री संसर्ग त्याग णो रक्खसीसु गिज्झेजा, गंडवच्छासुऽणेगचित्तासु। .. जाओ पुरिसं पलोभित्ता, खेलंति जहा व दासेहिं॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - रक्खसीसु - राक्षसियों में, गिज्झेजा - मूर्च्छित होवे, गंडवच्छासुजिनके वक्ष (हृदय) पर पुष्ट स्तन हैं उनमें, अणेग चित्तासु - अनेक चित्त वाली, पुरिसं - पुरुष को, पलोभित्ता - प्रलोभन देकर, खेलंति - क्रीड़ा करती है, दासेहिं - दासों से। ... भावार्थ - साधक को चाहिये कि पीनस्तन वाली चंचल-चित्त राक्षसी रूप स्त्रियों में मूर्च्छित (आसक्ति वाला) न होवे, जो मोहक हाव-भाव मधुर वाणी आदि से पुरुष को लुभा कर अपनी ओर आकृष्ट कर बाद में उनके साथ दासों के जैसा क्रीड़ा करती हैं।
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