Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - आठवां अध्ययन Kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
अर्थात् - स्वप्न में दही, छत्र, स्वर्ण, चामर, फलयुक्त वृक्ष, दीपक, ताम्बूल, शंख, ध्वजा और वृषभादि के देखने से धन की प्राप्ति होती है इत्यादि।
रात्रि के प्रथम प्रहर में देखा हुआ स्वप्न एक वर्ष में फल देता है, दूसरे प्रहर में देखा हुआ छह मास में, तीसरे प्रहर का तीन मास में और चौथे प्रहर में देखा हुआ स्वप्न तत्काल फल देने वाला होता है आदि।
अंगविजं (अंग विद्या) - शरीर के अंगों के स्फुरण का शुभाशुभ फल कथन करना। यथा -.
. सिर फुरणे किर रंजं, पियमेलो होइ वाहु फुरणंमि। अच्छि फुरणम्मि य पियं, अहरे पिय संगमो होइ॥
अर्थात् सिर के फुरने से राज्य की प्राप्ति होती है, भुजाओं के फुरने से प्रिय का मिलाप होता है, आंखों के स्फुरण से प्रिय वस्तु के दर्शन होते हैं और अधरों के स्फुरण से प्रिय का समागम होता है इत्यादि।
उक्त प्रकार की लौकिक विद्याओं का प्रयोग करने वाला साधु वास्तव में साधु कहलाने के योग्य नहीं है क्योंकि ये सब क्रियाएं साधु धर्म से सर्वथा बाहर हैं। अतः इन कर्मों से साधु को सर्वथा पृथक् रहना चाहिये।
उक्त क्रियाओं के अनुष्ठान करने वाले को किस फल की प्राप्ति होती है। अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं -
भ्रष्ट साधकों की गति-मति इह जीवियं अणियमेत्ता, पन्भट्ठा समाहिजोएहि। ते कामभोगरसगिद्धा, उववजंति आसुरे काये॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - इह - इस मनुष्य जन्म में, जीवियं - जीवितव्य को, अणियमेत्ता - बिना वश किए, पन्भट्ठा - भ्रष्ट होकर, समाहिजोएहिं - समाधि योगों से, कामभोगरसगिद्धाकामभोग रस में गृद्ध, उववजंति - उत्पन्न होते हैं, आसुरे काये - आसुर काय में।
भावार्थ - इस जन्म में असंयम जीवन का नियंत्रण न कर जो समाधि और योग (चित्त की एकाग्रता तथा प्रतिलेखनादि व्यापारों) से भ्रष्ट हो गये हैं, वे काम-भोग और रस में आसक्त होकर, असुर सम्बन्धी काया में (असुरकुमारों में) उत्पन्न होते हैं।
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