Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कापिलीय - तृष्णा की दुष्पूरता
१२७ TAMANNARA
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★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ तत्तो वि य उवट्टित्ता, संसारं बहु अणुपरियडंति। बहकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - उवट्टित्ता - निकल करके, बहुं - बहुत, अणुपरियडंति - परिभ्रमण करते हैं, कम्मलेवलित्ताणं - कर्म लेप से लिप्तों को, बोही - बोधि-धर्म की प्राप्ति, सुदुल्लहा - अति दुर्लभ।
___ भावार्थ - वहाँ असुर-निकाय में से निकल कर बहुत (विस्तृत) संसार में परिभ्रमण करते हैं। अतिशय कर्म-लेप से लिप्त हुए उन प्राणियों के लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ हो जाती है।
विवेचन - लक्षण स्वप्नादि लौकिक विद्याओं का उपयोग करने वाले, कामभोगों के रस में मूर्च्छित रहने वाले और तप संयम से अपने असंयमी जीवन को वश में नहीं करने वाले जीव असुरकाय में उत्पन्न होते हैं और वहाँ से निकल कर चौरासी लाख जीवयोनियों में बहुत काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। उनकी आत्मा पर कर्मों का अधिक लेप रहता है इसलिए उनको अत्यंत दुर्लभ इस बोधि धर्म की प्राप्ति होना बहुत कठिन हो जाता है।
तृष्णा की दुष्पूरता कसिणं वि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज एगस्स। तेणावि से ण संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - कसिणं - कृत्स्न-सम्पूर्ण, लोयं - लोक, पडिपुण्णं - प्रतिपूर्ण-धन धान्यादि से भरा हुआ, दलेज - दे देवे, एगस्स - एक को, ण संतुस्से - संतुष्ट नहीं होता, दुप्पूरए - दुःख से पूर्ण करने योग्य, आया - आत्मा।
भावार्थ - धन-धान्यादि से भरा हुआ परिपूर्ण यह लौक यदि कोई सुरेन्द्रादि एक ही व्यक्ति को दे दे तो उससे भी वह आत्मा संतुष्ट नहीं होता है। इस प्रकार इस आत्मा का तृप्त होना अति ही कठिन है।
- विवेचन - इस गाथा में तृष्णा की दुष्पूरता का वर्णन किया गया है। लोभग्रस्त आत्मा की संतुष्टि कभी नहीं होती है कहा है -
नवह्नि स्तृण काष्ठेषु नदीभिर्वा महोदधिः। न चैवात्माऽर्थ सारेण शक्यस्तर्पयितुं क्वचित्॥
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