Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्राणवध को, मिया
को, गच्छंति - जाते हैं, पावियाहिं - पापकारी, दिट्ठीहिं - दृष्टियों से ।
भावार्थ
'हम साधु हैं? इस प्रकार कहते हुए और प्राणी-वध को नहीं जानते हुए अर्थात् कौन प्राणी हैं, उनके कौन-से प्राण हैं, किस प्रकार उनकी हिंसा होती है यह नहीं जानते हुए और इसी कारण प्राणी-हिंसा का त्याग नहीं करते हुए मृग के समान अज्ञानी मंद बुद्धि वाले कई बाल जीव अपनी पापकारी दृष्टियों से नरक में जाते हैं।
विवेचन
जो अपनी पापमयी प्रवृत्ति का समर्थन करते हुए अपने आपको साधु कहलाने का गौरव प्राप्त करते हैं वे अपनी हिंसक पापमयी प्रवृत्तियों के कारण साधुता से गिर कर नरकादि दुर्गतियों में जाते हैं।
हु पाणवहं अणुजाणे, मुच्चेज कयाइ सव्वदुक्खाणं ।
एवं आयरिएहिं अक्खायं, जेहिं इमो साहुधम्मो पण्णत्तो ॥ ८ ॥
कठिन शब्दार्थ - पाणवहं - प्राणिवध का, अणुजाणे - अनुमोदक, ण मुच्चेज मुक्त नहीं हो सकता, सव्वदुक्खाणं - सर्व दुःखों से, एवं इस प्रकार, आयरिएहिं आचार्यों ने, अक्खायं - कहा है, जेहिं- जिन्होंने, साहुधम्मो - साधु धर्म की, पण्णत्तो प्ररूपणा की है।
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उत्तराध्ययन सूत्र - आठवां अध्ययन
मृग, अयाणंता न जानते हुए, मंदा मंद मति, णिरयं
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पाणे य णाइवाइज्जा, से समियत्ति वुच्चई ताई । ओ से पावयं कम्मं, णिज्जाइ उदगं व थलाओ ॥ ६ ॥
श्री पाठान्तर - आरिएहिं - आर्य अर्थात् तीर्थंकरों ने।
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भावार्थ - जो पुरुष प्राणिवध का अनुमोदन भी करता है, करना कराना तो दूर रहा वह कभी भी सभी दुःखों से नहीं छूट सकता, जिन्होंने यह साधु धर्म कहा है उन आर्य अर्थात् तीर्थंकर महापुरुषों ने अथवा आचार्यों ने इस प्रकार फरमाया है।
विवेचन
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जो जीव हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह रूप आस्रवों का स्वयं सेवन करते हैं, दूसरों से करवाते हैं और करने वालों का अनुमोदन करते हैं, वे शारीरिक और मानसिक दुःखों से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते हैं ।
साधुजनोचित कर्त्तव्य
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नरक
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