Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कारण है, उसी प्रकार आत्मा को दूषित करने वाले अत्यन्त गृद्धि के हेतु रूप शब्दादि विषयों में फंसा हुआ एकान्त हितकारी मोक्ष के विषय में विपरीत बुद्धि रखने वाला धर्म में आलस्य करने वाला और मोह से व्याकुल चित्त वाला अज्ञानी जीव श्लेष्म में लिपटी मक्खी के समान संसार में फंस जाता है।
विवेचन जो जीव ग्रन्थ आदि और इन्द्रिय विषयों का त्याग नहीं करते किन्तु उनमें ही अनुरक्त रहते हैं उनकी करुण दशा का चित्रण प्रस्तुत गाथा में किया गया है। कामभोगों के त्याग की दुष्करता
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कापिलीय
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दुप्परिच्चया इमे कामा, णो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अति सुव्वा साहू, जे तरंति अतरं वणिया व ॥ ६ ॥
कठिन शब्दार्थ - दुष्परिच्चया - दुस्त्यज, सुजहा - सुत्याज्य, अधीरपुरिसेहिं - अधीर पुरुषों के द्वारा, सुव्वया सुव्रती, तरंति तैरते हैं, अंतरं - दुस्तर, वणिया व - वणिक की तरह । भावार्थ इन काम-भोगों का परित्याग करना बड़ा कठिन है। अधीर पुरुषों से ये सहज ही नहीं छोड़े जा सकते अथ ( किन्तु ) जो सुन्दर ( निर्मल) व्रत वाले साधु हैं, वे कठिनता से पार किये जा सकने वाले इन विषयों के समूह को, व्यापारियों के समान पार कर जाते हैं। अर्थात् जैसे व्यापारी लोग जहाज आदि साधनों द्वारा दुस्तर समुद्र को पार करते हैं, वैसे ही धीर साधु भी व्रतादि साधनों द्वारा विषय रूप समुद्र से पार हो जाते हैं।
विवेचन प्रस्तुत गाथा में कामभोगों के त्याग की कठिनता बताते हुए स्पष्ट किया है कि जो पुरुष अल्प सत्त्व वाले हैं उनके लिए ये कामभोग दुस्त्यज हैं किन्तु जो महासत्त्व वाले धैर्यादि गुणों से युक्त है वे इन कामभोगादि विषयों का त्याग करके इस संसार समुद्र से इस प्रकार पार हो जाते हैं जैसे जहाज के द्वारा कोई व्यापारी समुद्र को पार कर लेता है।
पाप श्रमणों की दुर्गति
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पाप श्रमणों की दुर्गति
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समणा मु एगे वयमाणा, पाणवहं मिया अयाणंता । मंदा णिरयं गच्छंति, बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ॥ ७ ॥
कठिन शब्दार्थ
समणा
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श्रमण, मु हम, वयमाणा
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बोलते हुए, पाणव
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