Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - सातवां अध्ययन
मनुष्य गति प्राप्त करने वाले, पंडित पुरुष की अपनी बुद्धि से तुलना करके जो पुरुष मनुष्य की योनि को प्राप्त करते हैं वे मूल पूंजी में प्रवेश करते हैं अर्थात् वे मूल पूंजी लेकर लौटने वाले वणिक के समान है।
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मनुष्यत्व प्राप्त व्यक्ति की योग्यता
वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे गरा गिहि- सुव्वया ।
उविंति माणुस जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ २० ॥
कठिन शब्दार्थ - वेमायाहिं - विविध परिमाण वाली, सिक्खाहिं - शिक्षाओं से, गिहि - सुव्वया घर में रहते हुए भी सुव्रती, उविंति - प्राप्त करते हैं, कम्मसच्चा सत्य - स्वकृत कर्मों का फल पाते हैं।
कर्म
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भावार्थ - जो मनुष्य गृहस्थ होते हुए भी विविध प्रकार की शिक्षाओं द्वारा सुव्रत वाले अर्थात् प्रकृति-भद्रता आदि गुण वाले हैं वे मनुष्य योनि को प्राप्त करते हैं। क्योंकि प्राणी सत्य कर्म वाले होते हैं अर्थात् जैसा शुभ या अशुभ कर्म करते हैं वैसा ही शुभ अशुभ फल पाते हैं।
विवेचन प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'वेमायाहिं सिक्खाहिं' - त्रिमात्रा शिक्षा का अर्थ विविध मात्राओं अर्थात् परिणामों वाली शिक्षाएं हैं। जैसे - किसी गृहस्थ का प्रकृतिभद्रता आदि का अभ्यास कम होता है, किसी का अधिक और किसी का अधिकतर होता है। 'गिहिसुव्वया' (गृहिसुव्रता) के तीन अर्थ इस प्रकार मिलते हैं १. गृहस्थों के सत्पुरुषोचित व्रतों - गुणों से युक्त २. गृहस्थ सज्जनों के प्रकृति भद्रता, प्रकृति विनीतता, सदयहृदयता एवं अभत्सरता आदि व्रतों प्रतिज्ञाओं को धारण करने वाले ३. गृहस्थों में सुव्रत अर्थात् ब्रह्मचरणशील। इन तीन अर्थों में यहाँ दूसरा अर्थ सुसंगत है। यहाँ पर आया हुआ 'सुव्रत' शब्द श्रावक के बारह व्रतों के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। क्योंकि व्रतधारी श्रावकों की गति तो देवगति (वैमानिक देव) ही बताई है। प्रस्तुत गाथा में सुव्रती का मनुष्य योनि में जाना बताया है। अतः सुव्रती का उपर्युक्त अर्थ समझना ही उचित है।
'कम्म सच्चा हु पाणिणो' की पांच व्याख्याएं - १. जीव के जैसे कर्म होते हैं तदनुसार ही उन्हें गति मिलती है इसलिए प्राणी वास्तव में कर्म सत्य हैं २. जीव जो कर्म करते हैं उन्हें भोगना ही पड़ता है बिना भोगे छुटकारा नहीं अतः जीवों को कर्म सत्य कहा है ३. जिनके कर्म ( मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियाँ) सत्यं - अविसंवादी होते हैं वे कर्म सत्य कहलाते हैं ४ .
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