Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - आठवां अध्ययन tattatrikaditattatrikakkakakakakkkkkkkkkkkkkkk************** अतः वह अर्द्धरात्रि को ही घर से निकल पड़ा। नगर रक्षकों ने उसे चोर समझ कर कैद कर लिया। प्रातःकाल उसे राजा के समक्ष प्रस्तुत किया गया। . जब राजा ने कपिल से पूछताछ की तो उसने अपनी यथार्थ स्थिति स्पष्ट कर दी। राजा गरीब युवक कपिल की सत्यनिष्ठा से प्रसन्न हो गया और कहा - हे ब्राह्मण देव! तू जो कुछ मांगना चाहता है, मांग ले। कपिल ने विचार करने के लिए कुछ समय मांगा और समीप के उद्यान में चला गया। वह बहुत समय तक वहाँ सोचता रहा कि कितना और क्या मांगा जाय? क्यों नहीं दो स्वर्ण मुद्राएं.......यावत् हजार स्वर्ण मुद्राएं मांग लूं? इतने से. भी क्या होगा? क्यों नहीं एक लाख........नहीं, नहीं यह भी कम होगा। जब राजा इच्छानुसार मांगने को कह रहा है तो फिर मैं क्यों कृपणता रखू? उसकी तृष्णा करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं पर भी संतुष्ट नहीं हुई
और वह सम्पूर्ण राज्य ही मागंने को उद्यत हो गया। ___सहसा उसके मन ने एकदम पलटा खाया, चिंतन बदला। वह लोभ से. अलोभ की ओर मुड़ गया। वह सोचने लगा - अहो! तृष्णा की विचित्रता! कहाँ दो मास सोना लेने आया था
और कब करोड़ों पर भी संतोष नहीं। अरे इस दो मासा सोने के लोभ ने ही मुझे जेल की सजा दिला दी, फिर अधिक धन न जाने मुझे क्या क्या कष्ट देगा? चिंतन के इस शुभ प्रवाह से कपिल को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। त्याग भावना बढ़ी और उसने वहाँ पर ही केशों का लोच किया तथा देव प्रदत्त वेश को धारण कर साधुवृत्ति को स्वीकार कर लिया। साधना के मार्ग पर निकल पड़े। राजा ने जब कपिल मुनि को जाते हुए देखा तो पूछ बैठे - 'अरे! आपने कुछ मांगा नहीं? क्या अभी तक आप किसी निश्चय तक नहीं पहुंच पाये हैं?' ___द्रव्य और भाव से पूर्णतया निर्ग्रन्थ बने कपिल बोले - “राजन्! जो पाना था वह मैंने प्राप्त कर लिया है, अब मुझे कुछ भी नहीं मांगना है।" ..
ऐसा कह कर कपिल मुनि आगे चल दिये। संयम की निर्मल आराधना करते हुए छह मास पश्चात् घाती कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त कर लिया। अब कपिल मुनि, कपिल केवली बन गये। एक बार श्रावस्ती और राजगृही के मध्य जंगल में उन्हें ५०० चोरों ने घेर लिया। कपिल केवली ने उन्हें उद्बोधन देते हुए जो संसार की असारता और निर्लोभता का संदेश ध्रुवपद गीत में सुनाया उसी का सार रूप है यह आठवां अध्ययन, जिसकी प्रथम गाथा इस प्रकार है -
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