Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - सातवां अध्ययन *aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaat
भावार्थ - इस प्रकार ग्रहण रूप शिक्षा और आसेवन रूप शिक्षा से मनुष्य और देवगति को प्राप्त करने वाले दीनता रहित साधु और गृहस्थ को जान कर विवेकी पुरुष देवगति रूप लाभ किस प्रकार विषय-कषायादि वश हो कर हार जाता है और हारता हुआ भी नहीं जानता है।
कामभोगों की तुलना जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण समं मिणे। एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए॥२३॥
कठिन शब्दार्थ - कुसम्गे - कुशाग्र - कुश के अग्रभाग पर, उदगं - पानी, समुद्देण - . समुद्र के, समं - साथ, मिणे - मापे।
भावार्थ - जिस प्रकार कुशाग्र अर्थात् डाभ की नोक पर रहा हुआ, पानी यदि समुद्र के । साथ नापा जाय तो उनमें महान् अंतर दिखाई देगा और समुद्र की तुलना में कुशाग्र स्थित जलबिन्दु अत्यंत क्षुद्र दिखाई देगा इसी प्रकार देवों के शब्दादि काम-भोगों के सामने मनुष्य सम्बन्धी काम भोग भी अत्यंत तुच्छ हैं।
कुसग्गमित्ता इमे कामा, सण्णिरुद्धम्मि आउए। कस्स हेउं पुरा काउं, जोगक्खेमं ण संविदे॥२४॥
कठिन शब्दार्थ - कुसग्गमित्ता - कुशाग्र मात्र, सण्णिरुद्धम्मि - संक्षिप्त-विघ्न बाधाओं से युक्त, कस्स - किस, हेउं - हेतु को, पुराकाउं - आगे करके, जोगक्खेमं - योग और क्षेम को।
भावार्थ - अत्यन्त संक्षिप्त एवं विविध विघ्नबाधाओं से परिपूर्ण इस मनुष्यायु में ये मनुष्य सम्बन्धी काम भोग समुद्र जैसे देवों के काम-भोगों के आगे कुशाग्र स्थित जल-बिन्दु के समान हैं फिर किस हेतु को आगे रख कर यह जीव धर्म सम्बन्धी योग और क्षेम को नहीं जानता अर्थात् अप्राप्त धर्म की प्राप्ति के लिए और प्राप्त धर्म की रक्षा के लिए प्रयत्न नहीं करता।
विवेचन - प्रस्तुत दोनों गाथाओं में पांचवां दृष्टान्त दिया गया है। इसमें मनुष्य जीवन के सुखों की ओस बिन्दुओं से तुलना करते हुए कहा गया है कि जैसे ओस बिन्दु की आभा एवं उसका स्थिरत्व क्षणिक होता है उसी प्रकार मानव जीवन भी क्षण भंगुर और अस्थिर - चंचल आभा वाला होता है जबकि दिव्य सुख विशाल जलधि के समान अधिक एवं चिर स्थायी होते हैं।
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