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उत्तराध्ययन सूत्र - छठा अध्ययन tatttituttraktarkatarikkakkakkakakakakakakakakakakakakkkkkkkkk
सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य एयमढें सपेहाए, पासे समियदंसणे। छिंद गेहिं सिणेहं च, ण कंखे पुव्वसंथवं॥४॥
कठिन शब्दार्थ - एयं - इस, अटुं - अर्थ को, सपेहाए - विचार करके, पासे - देखे, समियदंसणे - सम्यग्दृष्टि, छिंद - छेदन करे, गेहिं - गृद्धिभाव, सिणेहं - स्नेह को, ण कंखे - न चाहे, पुव्वसंथवं - पूर्व परिचय को।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि पुरुष, उपरोक्त विषय में अपनी बुद्धि से विचार कर देखे (निश्चय करे)। विषय भोगों में आसक्ति और स्नेह का छेदन करे और पहले के परिचय की इच्छा नहीं करे।
विवेचन - विवेकी पुरुष को सांसारिक विषयों में ममता और स्नेह का त्याग करके मैत्री भाव के द्वारा प्राणिमात्र पर समभाव रखना चाहिये।
शंका - स्नेह और मैत्री में क्या अंतर है?
समाधान - स्नेह और मैत्री में बहुत अंतर है। स्नेह राग-जन्य है और मैत्री समता - समभाव से उत्पन्न होने वाली वस्तु है। इसलिए स्नेह रागजन्य होने से कर्म बंध का हेतु है और मैत्री आत्मा की समभाव परिणति की एक अवस्था विशेष होने से कर्मों की निर्जरा का हेतु है।
परिग्रह त्याग का फल गवासं मणिकुंडलं, पसवो दासपोरुसं। सव्वमेयं चइत्ताणं, कामरूवी भविस्ससि॥५॥
कठिन शब्दार्थ - गवासं - गाय, घोड़ा, मणि - रत्नादि, कुंडलं - कुंडल, पसवो - . पशु, दास - दास - नौकर, पोरुसं - पुरुषों का समूह, सव्वं - सर्व, एयं - यह, चइत्ताणंछोड़ करके, कामरूवी - इच्छानुकूल रूप बनाने वाला, भविस्ससि - होगा।
भावार्थ - गाय, घोड़ा, मणि, कुंडल आदि सोना-चाँदी जवाहरात के आभूषण, पशु सेवक और सैनिक आदि पुरुषों का समूह, यह सभी छोड़ कर और संयम का पालन कर तुम इच्छानुसार वैक्रिय रूप बनाने वाले देव हो जाओगे। .
विवेचन - इस गाथा में ऐहिक पदार्थों के त्याग का जो पारलौकिक फल है उसका
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