Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय - भ्रान्त मान्यताएं ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
कठिन शब्दार्थ - भणंता - बोलते हुए, अकरिता - क्रिया न करते हुए, बंधमोक्खपइण्णिणो - बंध और मोक्ष के संस्थापक, वाया - वचन, विरिय - वीर्य, मित्तेणं - मात्र से, समासासेंति - आश्वासन देते हैं, अप्पयं - आत्मा को।
भावार्थ - बंध और मोक्ष दोनों को मानने वाले ये वादी ज्ञान ही को मुक्ति का अंग कहते हुए और मुक्ति के लिए कोई उपाय न करते हुए केवल वाक्शक्ति से अपनी आत्मा को आश्वासन ही देते हैं॥१०॥ ..
विवेचन - जो लोग केवलज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं और उसमें आम्रव-निरोध की आवश्यकता को स्वीकार नहीं करते, उनकी भ्रान्त धारणा का प्रस्तुत गाथाओं में खण्डन किया गया है और 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' सिद्धान्त को स्थिर किया है।
- अतः ज्ञानमात्र से ही दुःख निवृत्ति या मोक्ष प्राप्ति की मान्यता भ्रान्त कल्पना है जो कि किसी भी प्रकार से भी विश्वास के योग्य प्रतीत नहीं होती।
ण चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं। • विसण्णा पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो॥११॥ .. कठिन शब्दार्थ - चित्ता - नाना प्रकार की, भासा - भाषाएं, ण तायए - रक्षक नहीं है, कुओ - कहां से, विजाणुसासणं - विद्याओं का सीखना (अनुशासन), विसण्णा - विमग्न, पावकम्मेहि - पाप कर्मों से, पंडिय - पंडित, माणिणो - मानने वाले।
भावार्थ - अनेक प्रकार की संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाएँ अथवा ज्ञान से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है, इस प्रकार के विविध वचन आत्मा की पापों से रक्षा नहीं करते। मंत्रादि विद्या की शिक्षा भी कैसे रक्षा कर सकेगी? नहीं कर सकती। पापकर्मों में विशेष रूप से फंसे हुए अपने की पंडित समझने वाले लोग वास्तव में बाल (अज्ञानी) ही हैं॥११॥
विवेचन - इस गाथा में यह बतलाया गया है कि संस्कृत, प्राकृत आदि आर्य और अनार्य भाषाओं का केवल मात्र ज्ञान प्राप्त कर लेने से इस जीव की रक्षा नहीं हो सकती तो सामान्य मंत्र विद्या रोहिणी और प्रज्ञप्त आदि विद्या तथा न्याय, मीमांसा आदि आडम्बर वर्द्धक शुष्क वाद विवाद की विद्या कहां से रक्षक बन सकेगी? ज्ञान के साथ सम्यक् चारित्र की महत्ता है। चारित्र बिना का ज्ञान प्राणशून्य शरीर की तरह निर्जीव है।
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