Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय - संग्रहवृत्ति का त्याग
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dattarak कठिन शब्दार्थ - बहिया - बाहर, उद्धं - ऊंचे को, आदाय - ग्रहण कर, णावकंखेइच्छा न करे, पुव्वकम्मक्खयट्ठाए - पूर्व कर्मों का क्षय करने के लिए, समुद्धरे - पुष्ट करे (धारण करे)।
भावार्थ - संसार से बाहर सब से ऊपर रहे हुए मोक्ष को अपना उद्देश्य बना कर मुमुक्षु कभी भी विषयादि की इच्छा नहीं करे। इस शरीर को भी पूर्वकृत कर्म को क्षय करने के लिए उचित आहारादि द्वारा धारण करे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में सूत्रकार ने मोक्ष का स्थान, उसके साधन और शरीर के पालन पोषण के उद्देश्य को स्पष्ट किया है।।
विविच्च कम्मुणो हेंडे, कालकंखी परिव्वए। ... मायं पिंडस्स पाणस्स, कडं लभ्रूण भक्खए॥१५॥
कठिन शब्दार्थ : विविच्च - दूर करके, कम्मुणो - कर्म के, हेउं - हेतु को, कालकंखी - कालकांक्षी (समयज्ञ), मायं - मात्रा, पिंडस्स - आहार की, पाणस्स - पानी की, कडं - किया हुआ, लधुण - प्राप्त करके, भक्खए - भक्षण करे।
भावार्थ - मुमुक्षु कर्म के हेतु मिथ्यात्व आदि को दूर कर के संयमानुष्ठान के अवसर की इच्छा रखता हुआ विचरे। गृहस्थों द्वारा अपने लिये बनाये हुए भोजन में से संयम योग्य, आहार, पानी की मात्रा गृहस्थों के यहाँ से प्राप्त कर खाये।
संग्रहवृत्ति का त्याग सण्णिहिं च ण कुविजा, लेवमायाय संजए। पक्खीपत्तं समायाय, णिरवेक्खो परिव्वए॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - सण्णिहिं - सन्निधि (संचय), कुग्विजा - करे, लेवमायाय - लेप मात्र भी, संजए - साधु, पक्खीपत्तं - पक्षी पंख, समायाय - ग्रहण कर, णिरवेक्खो - अपेक्षा रहित होकर। . भावार्थ - साधु लेप (लेश) मात्र भी अन्न आदि का संचय नहीं करे। जैसे पक्षी पंख ग्रहण कर यानी केवल अपने पंखों के साथ ही अन्यत्र चला जाता है, उसी प्रकार साधु भी पात्रादि धर्मोपकरण ले कर स्थान आदि की आसक्ति न रखते हुए विचरे।
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