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उत्तराध्ययन सत्र - छठा अध्ययन
दिया गया हा
देख कर, णायएज - ग्रहण न करे, तणामवि - तृण मात्र भी, दोगुंछी - जुगुप्सा करने वाला, अप्पणो - अपने, पाए - पात्र में, दिण्णं - दिया हुआ, भुंजेज - खावे - ग्रहण करे, भोयणं - भोजन को।
भावार्थ - धन-धान्यादि परिग्रह को नरक का कारण जान कर तृण मात्र भी बिना आज्ञा ग्रहण नहीं करे, पाप से घृणा करने वाला आत्मार्थी पुरुष क्षुधा लगने पर अपने पात्र में गृहस्थ द्वारा दिया हुआ भोजन खावे॥८॥
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में साधु के विशिष्ट आचार का वर्णन करते हुए बिना आज्ञा कुछ भी वस्तु ग्रहण नहीं करने का उपदेश दिया गया है। __ पूर्व की गाथाओं में पहले सत्य की गवेषणा करने का उपदेश दिया गया है इससे दूसरा महाव्रत प्रमाणित हुआ (गाथा २)। फिर किसी भी प्राणी का वध नहीं करना, इससे प्रथम महाव्रत का स्वरूप ज्ञात हुआ। (गाथा ७)। प्रस्तुत गाथा में अदत्तादान का प्रत्यक्ष निषेध किया गया है, जो कि तीसरा महाव्रत है। गवासं मणिकुंडलं......(गाथा ५) में परिग्रह का निषेध किया है और इसी के अंतर्गत मैथुन की निवृत्ति है। इस प्रकार व्युत्क्रम से विधि निषेध के द्वारा पांचों ही महाव्रतों का अंगीकार और पांचों आसवों का निषेध किया गया है।
.. भ्रान्त मान्यताएं इहमेगे उ मण्णंति, अप्पच्चक्खाय पावगं। आयरियं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चइ॥६॥
कठिन शब्दार्थ - इहं - इस संसार में, एगे - किसी एक मत के अनुयायी, मण्णंति - मानते हैं, अप्पच्चक्खाय - प्रत्याख्यान किये बिना, पावगं - पाप का, आयरियं - आचार को, विदित्ताणं - जानकर, सव्वदुक्खा - सभी दुःखों से, विमुच्चइ - छूट जाता है।
भावार्थ - यहाँ मुक्ति मार्ग के विषय में कई लोग मानते हैं कि पाप का त्याग किये बिना ही केवल आर्य-तत्त्व को जान कर यह आत्मा सभी दुःखों से छूट जाता है॥६॥ .
भणंता अकरिता य, बंधमोक्खपइण्णिणो। . वायाविरियमित्तेणं, समासासेंति अप्पयं॥१०॥
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