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उत्तराध्ययन सूत्र - पांचवां अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
मरणं पि सपुण्णाणं, जहा मेऽयमणुस्सुयं। विप्पसण्ण-मणाघायं, संजयाणं वुसीमओ॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - सपुण्णाणं - पुण्यवंत (पुण्यशाली), अणुस्सुयं - सुना है, विप्पसण्णंप्रसन्नता युक्त, अनाकुल चित्त, अणाघायं - व्याघात (आघात) रहित, संजयाणं - संयत (संयमी), वुसीमओ - जितेन्द्रिय।
भावार्थ - पुण्यवन्त संयमी जितेन्द्रिय महात्माओं का पंडित मरण होता है जैसा कि मैंने उसके लिए सुना है वह मरण प्रसन्नता युक्त एवं व्याघात रहित होता है।
पंडित मरण के अधिकारी ण इमं सव्वेसु भिक्खुसु, ण इमं सव्वेसुऽगारिसु। . णाणासीला अगारत्था, विसमसीला य भिक्खुणो॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - भिक्खुसु - भिक्षुओं को, अगारिसु - गृहस्थों को, णाणासीला - . नाना प्रकार के शीलों (व्रत नियमों) से सम्पन्न, अगारत्था - गृहस्थ भी, विसमसीला - विषमशील - विकृत-सनिदान सातिचार शील वाले।
__ भावार्थ - यह पण्डित मरण न सभी भिक्षुओं को होता है और न यह सभी गृहस्थों को होता है, गृहस्थ भी अनेक प्रकार के शील वाले होते हैं और साधु भी विषम-शील होते हैं।
विवेचन - कठिन व्रत पालने वाले भिक्षुओं को और विविध सदाचार का सेवन करने वाले गृहस्थों को पण्डित-मरण की प्राप्ति होती है।
संति एगेहिं भिक्खूहिं, गारत्था संजमुत्तरा। गारत्थेहि य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा॥२०॥
कठिन शब्दार्थ - एगेहिं - कई, संजमुत्तरा - उत्तम संयम वाले, गारत्थेहि - गृहस्थों से, साहवो - साधु।
भावार्थ - कई नामधारी साधुओं की अपेक्षा गृहस्थ उत्तम संयम वाले होते हैं और सभी गृहस्थों की अपेक्षा साधु उत्तम एवं शुद्ध संयम वाले होते हैं।
विवेचन - इस गाथा का अभिप्राय यह है कि अव्रती, अचारित्री या नामधारी भिक्षुओं की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि युक्त देश विरत गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं किन्तु उन सब देश विरत
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