Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अकाम मरणीय - सकाम मरणोत्तर स्थिति xxkakakakakakakkkkkkkkkkkxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशक १ में उल्लिखित शंख श्रावक के वर्णन से अशन, पान का त्याग किये बिना भी पौषध किया जा सकता है जिसे देश पौषध (या दया - छह काय व्रत) कहते हैं। 'पोषणं पोषः अर्थात् धर्मस्य तं धत्ते इति पौषधं' पौषध का शब्दशः अर्थ होता है - जो धर्म का पोषण करे अथवा जिस व्रत के द्वारा धर्म का पोषण किया जाय, उसे 'पौषध' कहते हैं। पौषध अर्थात् धर्म के पोष (पुष्टि) को धारण करने वाला। जैन धर्मानुसार श्रावक के बारहव्रतों में ग्यारहवाँ व्रत प्रतिपूर्ण (परिपूर्ण) पौषध है। प्रतिपूर्ण पौषध में अशनादि चारों आहारों का त्याग, मणि-मुक्ता स्वर्ण आभरण माला, उबटन, मर्दन, विलेपन आदि शरीर सत्कार का त्याग, अब्रह्म का त्याग एवं शस्त्र मूसल आदि व्यवसाय आदि तथा आरम्भादि सांसारिक एवं सावध कार्यों का त्याग करना अनिवार्य होता है तथा एक अहोरात्रि (आठ प्रहर) तक आत्मचिन्तन, स्वाध्याय, धर्मध्यान एवं सावध प्रवृत्तियों के त्याग में बिताना होता है।
श्रावक के लिए दोनों पक्षों में छह पौषध करने का विधान है। यदि छह नहीं कर सके तो एक माह में कम से कम दो पौषध तो अवश्य करे।
एवं सिक्खासमावण्णे, गिहवासे वि सुव्वए। मुच्चइ छविपव्वाओ, गच्छे जक्खसलोगयं॥२४॥
कठिन शब्दार्थ - 'सिक्खासमावण्णे - शिक्षा (व्रताचरण के अभ्यास) से सम्पन्न, गिहवासे - गृहवास में, मुच्चइ - मुक्त हो जाता है, छवि पव्वाओ - छवि पर्व - छवि का अर्थ है चमड़ी और पर्व का अर्थ है शरीर के संधि स्थल - घुटना, कोहनी आदि अर्थात् मानवीय औदारिक शरीर से, गच्छे - जाता है, जक्खसलोगयं - यक्षसलोकतां - यक्ष अर्थात् देव, सलोक-देवों के समान लोक यान देवलोक में।
भावार्थ - इस प्रकार व्रत पालन रूप शिक्षा सहित सुव्रती श्रावक गृहस्थावस्था में रहता हुआ भी चर्म, घुटने और कोहनी आदि पर्व यानी सन्धिभागों से अर्थात् औदारिक शरीर से छूट जाता है और देवलोक में जाता है।
सकाम मरणोत्तर स्थिति अह जे संवुडे भिक्खू, दुण्ह-मण्णयरे सिया। सव्वदुक्खप्पहीणे वा, देवे वावि महिहिए॥२५॥
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