Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गृहस्थों की अपेक्षा सर्वविरत भावभिक्षु संयम में श्रेष्ठ होते हैं क्योंकि उनका संयम व्रत परिपूर्ण
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है । इसे एक संवाद द्वारा समझाया गया है। • श्रावकों और साधुओं में कितना अन्तर है ?
एक श्रावक ने साधु से
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पूछा
साधु ने कहा- सरसो और मंदर (मेरु) पर्वत जितना ।
श्रावक ने पुनः पूछा- कुलिंगी (वेशधारी) साधु और श्रावक में कितना अन्तर है ? साधु ने उत्तर दिया- वही सरसों और मेरु पर्वत जितना । श्रावक की शंका का समाधान इससे हो गया ।
चीराजिणं णगिणिणं, जड़ी संघाडी मुंडिणं । याणि विणतायंति, दुस्सीलं परियागयं ॥ २१ ॥
चीवर ( वल्कल - वस्त्र) अजिणं
अजिन
मृगचर्म,
जटा-धारण,
कठिन शब्दार्थ चीर मृगछाला आदि, णगिणिणं नग्नता, जडी संघाडी - संघाटी - चिथडों (वस्त्रों के टुकड़ों) को जोड़ कर बनाया हुआ उत्तरीय, मुण्डिणं शिरो मुण्डन, एयाणि - ये सब, ण तात रक्षा नहीं कर सकते, दुस्सीलं प्रव्रज्या पर्याय प्राप्त ।
दुःशील (दुराचारी) को, परियागयं
भावार्थ - चीवर और मृगचर्म, नग्नता, जटा धारण करना, संघाटी-वस्त्रों के टुकड़ों को जोड़कर बनाई हुई कथा, मस्तक मुंडन, ये साधुता के बाह्य चिह्न भी दीक्षा पर्याय धारण किये हुए दुःशील पुरुष की दुर्गति से रक्षा नहीं कर सकते ।
विवेचन प्रस्तुत गाथा में स्पष्ट किया गया है कि साधु का बाह्यवेष या बाह्याचार, दुराचारी साधु को दुर्गति गमन से नहीं बचा सकता है। इस गाथा का उल्लेख कर सूत्रकार ने 'गृहस्थ कई भिक्षुओं में संयम में श्रेष्ठ होते हैं' इस वाक्य का समर्थन किया है और बाह्य वेशभूषा से स्वर्ग या मोक्ष प्राप्ति की मान्यता का खंडन किया है।
पिंडोलए व दुस्सीले, णरगाओ ण मुच्चइ ।
भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कम्मइ दिवं ॥ २२ ॥
कठिन शब्दार्थ - पिंडोलए - भिक्षा जीवी, दुस्सीले - दुःशील, णरगाओ - नरक से, ण मुच्चइ बच नहीं सकता, भिक्खाए - भिक्षुक, निहत्थे - गृहस्थ, सुव्वे - सुव्रती व्रतों का निरतिचार पालक, कम्मइ
जाता है, प्राप्त करता है, दिवं देवलोक को ।
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अकाम मरणीय
NO
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सकाम मरण का स्वरूप
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८५ ***
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