Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अकाम मरणीय - साधक का कर्तव्य
८९ aaraatdaddddddddddddddddddatkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
ताणि ठाणाणि गच्छंति, सिक्खित्ता संजमं तवं। भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिणिव्वुडा॥२८॥
कठिन शब्दार्थ - ताणि - उन, ठाणाणि - स्थानों को, गच्छंति - जाते हैं, सिक्खित्ताअभ्यास करके, संजमं - संयम, तवं - तप का, भिक्खाए - भिक्षाजीवी साधु, निहत्थे - गृहस्थ, परिणिव्वुडा - परिनिवृत्त - हिंसा से निवृत्त (शांत) अथवा कषायों से रहित।
भावार्थ - भिक्षु हो अथवा गृहस्थ हो, जिन्होंने उपशम द्वारा कषायाग्नि को शान्त कर दिया है वे संयम और तप का पालन कर ऊपर बताये हए स्थानों में जाते हैं।
विवेचन - स्वर्गादि फल का हेतुभूत जो पंडित मरण है उसकी प्राप्ति उन्हीं आत्माओं को होती है जो कि प्रशांत, कषायमुक्त, शुद्ध आचार रखने वाले और सदैव निवृत्ति परायण हैं।
तेसिं सुच्चा सपुज्जाणं, संजयाणं वुसीमओ।
ण संतसंति मरणंते, सीलवंता बहुस्सुया॥२६॥.. ... कठिन शब्दार्थ - संपुजाणं - सत् पूज्यों, संजयाणं - संयतों, वुसीमओ - जितेन्द्रिय, ण संतसंति - संत्रस्त नहीं होते हैं, मरणंते - मृत्यु के समीप जाने से, सीलवंता - शीलवान् (चारित्र युक्त) बहुस्सुया - बहुश्रुत।
भावार्थ - उन सच्चे पूजनीय, संयमवंत, जितेन्द्रिय भाव-साधुओं का उपरोक्त वर्णन सुन कर चारित्रशीलं बहुश्रुत महात्मा मरणान्त समय के उपस्थित होने पर उद्विग्न नहीं होते।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में पंडित मरण योग्य साधु की मृत्यु के समय की मनःस्थिति का चित्रण किया गया है। ___. “सीलवंता बहुस्सया' - शीलवान् और बहुश्रुत, इन दो पदों का एक साथ प्रयोग इसलिए भी सूत्रकार ने किया है कि केवल चारित्र या केवल ज्ञान ही साध्य सिद्धि का हेतु नहीं हो सकता किन्तु ज्ञान और चारित्र इन दो का समुच्चय ही मोक्ष का कारण है। चारित्रवान् और बहुश्रुत जीव ही मृत्यु भय से सर्वथा रहित हो सकते हैं, सर्व साधारण नहीं।
साधक का कर्तव्य तुलिया विसेसमादाय, दयाधम्मस्स खंतिए। विप्पसीइज्ज मेहावी, तहाभूएण अप्पणा॥३०॥
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