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असंस्कृत - द्वेष-विजय
७३ kaitriddartakramatkartitikritiktakatrikakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkk
प्रतिक्षण अप्रमत्त भाव खिप्पं ण सक्केइ विवेकमेलं, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे। समिच्च लोगं समया महेसी, आयाणुरक्खी चरेऽप्पमत्तो॥१०॥
कठिन शब्दार्थ - खिप्पं - शीघ्र, ण सक्केइ - समर्थ नहीं, विवेगं - विवेक को, एउं - प्राप्त करने को, तम्हा - इसलिए, समुट्ठाय - सम्यक् प्रकार से उद्यत होकर, पहाय - त्याग कर, कामे - कामभोगों को, समिच्च - जान कर, लोयं - लोक को, समया - समभाव से, महेसी - महर्षि, आयाणुरक्खी - आत्मानुरक्षी - आत्मा की रक्षा करने वाला।
भावार्थ - शीघ्र ही विवेक प्राप्त करना और बाह्य संग एवं कषायों का त्याग करना, शक्य नहीं है। इसलिए आत्मा की रक्षा करने वाला मोक्षार्थी मुनि काम भोगों का त्याग कर और लोक का स्वरूप समभाव पूर्वक जान कर प्रमाद रहित हो कर सावधानी पूर्वक विचरे॥१०॥
विवेचन - जरा और मृत्यु के अति निकट आ जाने पर जीव को विवेक शक्ति का शीघ्र प्राप्त होना बहुत कठिन है। अतः धर्म का आचरण पीछे से कर लिया जायेगा इस प्रकार के भावों को त्याग देना चाहिये और धर्मानुष्ठान में लग जाना चाहिये।
द्वेष-विजय मुहं. मुहं मोहगुणे जयंतं, अणेग-रूवा समणं चरंतं। फासा फुसंति असमंजसं च, ण तेसु भिक्खू मणसा पउस्से॥११॥
कठिन शब्दार्थ - मुहं मुहं - बार-बार, मोहगुणे - मोह गुण को, जयंतं - जीतता हुआ, अणेगरूवा - अनेक प्रकार के, समणं - साधु, चरंतं - संयम मार्ग में चलते हुए, फासा - स्पर्श, फुसंति - स्पर्शित होते हैं, असमंजसं - प्रतिकूल रूप से, मणसा - मन से, ण पउस्से - द्वेष नहीं करे। ____भावार्थ - शब्दादि मोह गुणों को बारम्बार - निरन्तर जीतते हुए और संयम मार्ग में विचरते हुए साधु को अनेक प्रकार के शब्दादि विषय प्रतिकूल रूप से स्पर्श करते हैं किन्तु साधु को चाहिए कि उन पर मन से भी द्वेष न करे॥११॥
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