Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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असंस्कृत - स्वच्छंदता-निरोध
७१ kakkakakakakakakkakakakakkakakakakakakakak****** कठिन शब्दार्थ - पयाई - पद पद पर, परिसंकमाणो - शंका करता हुआ, जं - जो, किंचि - कुछ-थोड़ा, पासं - पाश रूप, मण्णमाणो - मानता हुआ, लाभंतरे - लाभ होता हो, जीविय - जीवन को, बूहइत्ता - वृद्धि करे, पच्छा - पीछे, परिण्णाय - परिज्ञा से जान कर, मलावधंसी - कर्म रूप मल को दूर करने वाला होवे।
भावार्थ - साधु को चाहिए कि मूलगुण आदि स्थानों में पद-पद पर कहीं दोष न लग जाय इस प्रकार शंका करता हुआ और इस लोक में गृहस्थ के साथ जो कुछ थोड़ा भी परिचय आदि है उसे संयम के लिए पाश रूप मानता हुआ विचरे। जब तक इस शरीर से विशेष ज्ञानध्यान-संयम-तप आदि गुणों का लाभ होता हो, तब तक जीवन की. वृद्धि करे अर्थात् अन्न-पानी आदि द्वारा सार-संभाल करे, किन्तु बाद में लाभ न होने की अवस्था में ज्ञपरिज्ञा द्वारा शरीर को धर्म-साधन में, अयोग्य समझ कर और प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा आहार का त्याग कर इस औदारिक शरीर का त्याग करे।
विवेचन - उक्त गाथा में 'परिण्णा' परिज्ञा शब्द दिया है जिसका तात्पर्य यह है कि जब तुमको पूर्ण रूप से यह ज्ञान हो जाय कि यह शरीर अब नहीं रहेगा। इस का वियोग अब अवश्यंभावी है उस समय पर संयमशील पुरुष को उचित है कि वह भक्त प्रत्याख्यान आदि अनशनव्रत के द्वारा अपने कर्ममल को दूर करने का प्रयास करे।
. स्वच्छंदता-निरोध छंदं णिरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी। । पुव्वाई वासाई चरेऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं॥८॥
कठिन शब्दार्थ - छंदं - स्वच्छदता का, णिरोहेण -- निरोध से, उवेइ - प्राप्त होता है, मोक्खं - मोक्ष को, आसे - छोड़ा, जहा - जैसे, सिक्खिय - शिक्षित, वम्मधारी - कवच को धारण करने वाला, पुव्वाई - पूर्वो, वासाई - वर्षों तक, अप्पमत्तो - अप्रमत्तप्रमाद रहित, खिप्पं - शीघ्र।
भावार्थ - जिस प्रकार सवार की अधीनता में रह कर शिक्षा पाया हुआ और शरीर पर कवच धारण करने वाला घोड़ा, युद्ध में शत्रुओं से नहीं मारा जाता अपितु शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है, इसी प्रकार गुरु की अधीनता में रह कर शास्त्र-विहित आचार का सेवन करने
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