Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
७०
********★★★★★★★★★★★★★
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
ही हो जाता है। इस प्रकार धन स्वयं भी जीव का रक्षण नहीं कर सकता और रक्षा करने वाले सम्यगदर्शन आदि गुणों का भी घातक होता है।
अप्रमत्तता का संदेश
सुत्ते यावि पडिबुद्ध जीवी, णो वीससे पंडिए आसुपण्णे । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंड पक्खी व चरेऽप्पमत्तो ॥ ६ ॥ कठिन शब्दार्थ - सुत्तेसु सोते लोगों में, यावि और भी, पडिबुद्धजीवी - जागृत रह कर जीवन जीने वाला, णो वीससे - विश्वास न करे, पंडिए - पंडित (विद्वान् ), आसुपणे- आशुप्रज्ञ - तीव्र बुद्धि वाला, घोरा घोर अत्यन्त भयानक, मुहुत्ता - मुहूर्त (काल), अबलं - निर्बल, सरीरं शरीर, भारंडपक्खी व भारण्ड पक्षी के समान, चरे विचरण करे, अप्पमत्तो - अप्रमादी होकर ।
भावार्थ
उत्तराध्ययन सूत्र - चौथा अध्ययन
*****
Jain Education International
-
-
-
-
द्रव्य और भाव से सोये हुए लोगों के बीच भी द्रव्य और भाव से जाग कर संयम युक्त जीवन जीने वाला, आशुप्रज्ञ पंडित मुनि प्रमादाचरण में विश्वास नहीं करे। काल, घोर - अनुकम्पा रहित है और शरीर निर्बल है । अतएव भारण्ड पक्षी के समान प्रमाद रहित हो कर सावधानी पूर्वक विचरे ।
विवेचन
प्रस्तुत गाथा में साधु को प्रमादी पुरुषों से सावधान रहने और स्वयं अप्रमत्त रह कर जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया गया है।
निद्रा में प्रमाद और जागरण में अप्रमत्तता है। अतः आशुप्रज्ञ पंडित मुनि को चाहिये कि धर्म के प्रति असावधान एवं प्रमादी लोगों के बीच रहते हुए भी स्वयं सदा धर्म में तत्पर रहे और जन-साधारण के समान प्रमाद में कतई विश्वास नहीं करे। काल निर्दय है, उसके आगे शरीर सर्वथा अशक्त है। अतएव मुमुक्षु को चाहिये कि भारण्ड पक्षी के समान सदा प्रमाद-रहित . हो कर शास्त्र - विहित अनुष्ठानों का सेवन करे। भारण्ड पक्षी के शरीर की रचना ही ऐसी होती है कि तनिक प्रमाद भी उसकी जीवन लीला को समाप्त कर देता है। इसी प्रकार साधु जीवन जरा-सा प्रमाद, संयम जीवन को नष्ट कर देता है।
चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मण्णमाणो । लाभंतरे जीविय बूहइत्ता, पच्छा परिण्णाय मलावधंसी ॥७ ॥
-
For Personal & Private Use Only
-
www.jainelibrary.org