Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
६१
चतुरंगीय - जीवन मुक्त का स्वरूप **************************************************************
कठिन शब्दार्थ - माणुसत्तम्मि - मनुष्य भव में, आयाओ - आकर, संवुडे - संवृत होकर, रयं - रज को, णिझुणे - नष्ट कर देता है। ..
' भावार्थ - मनुष्य-जन्म पा कर जो आत्मा धर्म सुन कर उस पर श्रद्धा रखता है, संयम विषयक वीर्य (शक्ति) पाकर, संयम में उद्यम कर, तपस्वी और संवर वाला होकर वह कर्म-रज का नाश कर देता है।
विवेचन - इन चारों दुर्लभ अंगों को प्राप्त कर संयम की आराधना करने वाला मुमुक्षु संवर द्वारा नवीन कर्मों को आने से रोकता है और तपस्या द्वारा पूर्वकृत कर्मों का नाश करके अन्त में शाश्वत सिद्ध होता है।
जीवन मुक्त का स्वरूप सोही उजुय-भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ। णिव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तिव्व पावए॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - सोही - शुद्धि, उज्जुय-भूयस्स - ऋजुभूत - सरल की, सुद्धस्स - शुद्ध के, परमं - परम (कल्याण स्वरूप), णिव्वाणं - निर्वाण को, जाइ - प्राप्त करता है, घयसित्तिव्व - घृत से सींची, पावए - अग्नि।
भावार्थ - मनुष्य-जन्म, धर्मश्रवण, धर्मश्रद्धा और संयम में पराक्रम ये चार प्रधान अंग पा कर मुक्ति की ओर प्रवृत्त हुए, सरल भाव वाले व्यक्ति की शुद्धि होती है और शुद्धि प्राप्त आत्मा में ही धर्म ठहर सकता है। घी से सींची हुई अग्नि के समान तप-तेज से देदीप्यमान होती हुई वह आत्मा परम निर्वाण-मोक्ष प्राप्त करती है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में स्पष्ट किया गया है कि धर्म की प्रतिष्ठा के लिए कषायनिर्मुक्त आत्मा ही अपेक्षित है। कषायमुक्त - शुद्ध और धर्म युक्त आत्मा को ही जीवन मुक्त कहते हैं। कषायों से मलिन बनी हुई आत्मा में धर्म को ठहरने के लिए स्थान नहीं है।
यहाँ घृतसिक्त अग्नि का उदाहरण दिया है इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार घृत सींची हुई अग्नि अधिक तेज वाली होती है उसी प्रकार कषाय मुक्त और धर्म युक्त आत्मा के . बढ़े हुए तपोबल में भी वैसी ही उत्कष्ट प्रभापूर्ण तेजस्विता होती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org