Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - तीसरा अध्ययन
kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk★★★★★★★★★ खित्तं वत्थं हिरण्णं य, पसवो दासपोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववजड़॥ १७॥
कठिन शब्दार्थ - खित्तं - क्षेत्र, वत्थु - वास्तु-भवन आदि, हिरण्णं - हिरण्य-सोना, पसवो - पशु, दासपोरुसं - दास व पुरुष समूह, कामखंधाणि - काम स्कन्ध।
भावार्थ - दस अंगों में से पहला अंग यह है - १. जहाँ क्षेत्र वास्तु-भवन आदि, सोना, पशु तथा दास और पुरुष वर्ग, ये चार कामस्कंध हों वहाँ वह दिव्य आत्मा उत्पन्न होती है।
मित्तवं णाइवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं। अप्पायंके महापण्णे, अभिजाए जसो बले॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - मित्तवं - मित्रवान्, णाइवं - ज्ञातिवान्, उच्चागोए - उच्चगोत्रीय, वण्णवं - वर्णवान् - सुंदर वर्ण वाला, अप्पायंके - आतंक रहित (नीरोग), महापण्णे - महाप्राज्ञ, अभिजाए - अभिजात - विनयवान्, जसो - यशस्वी, बले - बलवान्। ___ भावार्थ - शेष नौ अंग इस प्रकार हैं - वह दिव्यात्मा मानव भव में २. मित्र वाला ३. ज्ञाति वाला ४. उच्च गोत्र वाला ५. सुन्दर वर्ण वाला ६. नीरोग ७. महा प्रज्ञाशाली ८. विनीत - सब को प्रिय लगने वाला है. यशस्वी और १०. बलवान् होता है।
विवेचन - इस गाथा में शेष नौ अंगों का निर्देश किया गया है। देवलोक से आये हुए जीव का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि वह पुण्यात्मा जीव इस संसार में बहुत मित्रों वाला होता है। अधिक संबंधियों वाला होता है तथा ऊँचे कुल में जन्म लेने वाला होता है, उसके शरीर का वर्ण भी बड़ा सुंदर - स्निग्ध और गौरादि वर्ण युक्त होता है। उसका शरीर नीरोग - रोग रहित होता है एवं बुद्धिशाली मनुष्यों में अधिक बुद्धि रखने वाला, विनयशील, यशस्वी और बलशाली होता है। उक्त गुण उस आत्मा में स्वभाव से ही होते हैं अर्थात् पूर्वोपार्जित शेष रहे शुभ कर्मों के प्रभाव से ये सब वस्तुएं उस आत्मा को बिना ही यत्न के • प्राप्ति हो जाती है। किसी साधन विशेष के अनुष्ठान की उसे आवश्यकता नहीं होती।
भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं। पुव्विं विसुद्ध-सद्धम्मे, केवलं बोहि बुझिया॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - भोच्चा - भोग करके, माणुस्सए - मनुष्य के, भोए - भोगों को,
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