Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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५८.
उत्तराध्ययन सूत्र - तीसरा अध्ययन ************************************************************
भावार्थ - जिस प्रकार सभी मनोज्ञ काम भोग एवं राज्य-ऋद्धि मिल जाने पर भी क्षत्रियों की राज्यं बढ़ाने की तृष्णा शांत नहीं होती उसी प्रकार संसार में अशुभ कर्म वाले प्राणी नाना प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करते हुए भी निर्वेद प्राप्त नहीं करते। संसार-परिभ्रमण से उन्हें, कभी उद्वेग नहीं होता। .
विवेचन - चतुर्गति में निरन्तर भ्रमण करते हुए भी इस जीव को उपरति नहीं होती है - यह इस गाथा में बताया है।
कम्म-संगेहिं संमूढा, दुक्खिया बहुवेयणा। अमाणुसासु जोणिसु, विणिहम्मति पाणिणो॥६॥
कठिन शब्दार्थ - कम्मसंगेहिं - कर्मों के संयोग से, सम्मूढा - मूढ़ बने हुए, दुक्खियादुःखित, बहुवेयणा - बहुत वेदना से युक्त, अमाणुसासु - मनुष्येतर - मनुष्य को छोड़ अन्य, जोणिसु - योनियों में, विणिहम्मंति - पीड़ा को प्राप्त होते हैं, पाणिणो - प्राणी।
भावार्थ - कर्मों के संबंध से मूढ़ बने हुए दुःखी और अतिशय वेदना वाले प्राणी मनुष्ययोनि के सिवाय दूसरी नरक आदि योनियों में अनेक प्रकार से दुःख भोगते हैं।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में जीवों के पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों की फल विचित्रता और फलतः अन्य योनियों की अपेक्षा मनुष्य योनि की श्रेष्ठता का दिग्दर्शन कराया गया है।
- मनुष्य जन्म की प्राप्ति का उपाय कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहि-मणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं॥७॥
कठिन शब्दार्थ - कम्माणं - कर्मों के, पहाणाए - विनष्ट होने पर, आणुपुव्वी - - अनुक्रम से, कयाइ उ - कदाचित्, सोहिं - शुद्धि को, अणुप्पत्ता - प्राप्त हुए, आययंति - प्राप्त करते हैं, मणुस्सयं - मनुष्यत्व को।
भावार्थ - कभी क्रमशः मनुष्यगति प्रतिबंधक कर्मों के नाश होने पर कर्म-क्षय रूप शुद्धि को प्राप्त हुए जीव मनुष्य-जन्म प्राप्त करते हैं।
विवेचन - मनुष्य जन्म को अत्यंत दुर्लभ बताकर आगमकार ने प्रस्तुत गाथा में मनुष्य जन्म की प्राप्ति का कारण बतलाने की कृपा की है। मनुष्य गति के प्रतिबन्धक कर्मों का विनाश और शुद्धि की प्राप्ति ही मनुष्य जन्म का कारण है।
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