Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - पहला अध्ययन kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
खड्डया मे चवेडा मे, अक्कोसा य वहा य मे। कल्लाणमणुसासंतो, पावदिट्टित्ति मण्णइ॥३॥
कठिन शब्दार्थ - खड्डया - ठोले (ठोकर, लात) मारने रूप, चवेडा - थप्पड़ (चांटा) मारने, मे - मेरे लिए, अक्कोसा - आक्रोश, वहा - वध रूप, कल्लाणं - कल्याणकारी, अणुसासंतो - शिक्षा देने पर, पावदिट्टि - पापदृष्टि वाला, मण्णइ - मानता है।
भावार्थ - कल्याणकारी शिक्षा देने पर पाप-दृष्टि अविनीत शिष्य इस प्रकार मानता है कि मेरे लिए ये वचन ठोले रूप हैं, मेरे लिए ये थप्पड़ रूप हैं और मेरे लिए ये आक्रोश रूप तथा वध रूप हैं।
विवेचन - जिस प्रकार सांप को पिलाया हुआ गोदुग्ध भी विष के रूप में परिणत हो जाता है। उसी प्रकार अविनीत (मूर्ख) शिष्य को दी गयी हित शिक्षा का परिणाम भी विपरीत और भयंकर होता है।
सुशिष्य और कुशिष्य में अंतर पुत्तो मे भाय-णाइत्ति, साह कल्लाण मण्णइ। , पावदिट्टि उ अप्पाणं, सासं दासित्ति मण्णइ॥३६॥
कठिन शब्दार्थ - पुत्तो - पुत्र, भाय - भाई, णाइ - ज्ञातिजन, साहू - विनीत साधु, अप्पाणं - अपने आप को, सासं - शिक्षा को, दासित्ति - दास के समान।
भावार्थ - विनीत साधु गुरु महाराज की शिक्षा को कल्याणकारी मानता है और ऐसा समझता है कि गुरु महाराज मुझे अपना पुत्र, भाई, स्वजन मान कर शिक्षा देते हैं, किन्तु पापदृष्टि अविनीत शिष्य को शिक्षा देने पर वह अपने आपको दास के समान मानता है।
ण कोवए आयरियं, अप्पाणं पि ण कोवए। बुद्धोवघाई ण सिया, ण सिया तोत्तगवेसए॥४०॥
कठिन शब्दार्थ - ण कोवए - कुपित नहीं करे, आयरियं - आचार्य को, बुद्धोवघाईबुद्धोपघाती-आचार्य का उपघात करने वाला, सिया - हो, तोत्तगवेसए - तोत्र गवेषकछिद्रान्वेषणं करने वाता।
भावार्थ - विनीत शिष्य को चाहिए कि वह आचार्य महाराज को कुपित नहीं करे,
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