Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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___ उत्तराध्ययन सूत्र - द्वितीय अध्ययन *************************************************************
एक ही स्थान में अधिक निवास करने से स्त्री-परीषह की संभावना हो सकती है अतः अब सूत्रकार चर्या परीषह का वर्णन करते हैं।
१. चर्या परीष्ट एग एव घरे लाढे, अभिभूय परीसहे। गामे वा गरे वावि, णिगमे वा रायहाणीए॥१८॥
कठिन शब्दार्थ • एग एव - अकेला, लाढे - प्रासुक आहार से निर्वाह करने वाला साधु, अभिभूय - जीत कर, गामे - ग्राम में, णगरे - नगर में, णिगमे - निगम में, रायहाणीए - राजधानी में। __ भावार्थ - प्रासुक-एषणीय आहार से निर्वाह करने वाला प्रशस्त साधु परीषहों को जीत कर, ग्राम अथवा नगर में अथवा व्यापारी बस्ती वाले प्रदेश में अथवा राजधानी में अकेला (राग-द्वेष रहित हो कर) अप्रतिबद्ध विहार करे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में साधु को एक स्थान में बैठे न रह कर सदा ग्रामानुग्राम विचरण करने का आदेश किया गया है।
प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'एग एवं' शब्द के चार अर्थ होते हैं - १. एकाकी - राग द्वेष रहित २. निपुण, गुणी सहायक के अभाव में अकेला विचरण करने वाला गीतार्थ साधु ३. प्रतिमा धारण करके तदनुसार आचरण करने के लिए जाने वाला अकेला साधु ४. कर्म समूह नष्ट होने से मोक्षगामी या कर्म क्षय करने हेतु मोक्ष प्राप्ति योग्य अनुष्ठान के लिये जाने वाला एकाकी साधु।
असमाणो चरे भिक्खू, णेव कुजा परिग्गहं। असंसत्तो मिहत्थेहि, अणिकेओ परिव्वए॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - असमाणो - असमान - गृहस्थ से असदृश (विलक्ष), अ+समान - मान (अहंकार, आडम्बर) से रहित, परिग्गहं - परिग्रह - ग्रामादि या आहारादि किसी पदार्थ में ममत्व बुद्धि, असंसतो - असंसक्त - असम्बद्ध - निर्लिप्त, अणिकेओ - अनिकेत - गृह बन्धन से मुक्त, परिव्वर - परिभ्रमण करे, विचरे।
भाप - साधु गृहस्थियों की नेश्राय रहित होकर अप्रतिबद्ध विहार करे, परिग्रह (ग्रामादि
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