Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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परीषह - परीषहों का स्वरूप - अचेल परीषह ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
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६अचेल परीषह परिजुण्णेहिं वत्थेहिं, होक्खामि त्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्खं, इइ भिक्खू ण चिंतए॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - परिजुण्णेहिं - जीर्ण होने पर, वत्थेहिं - वस्त्रों के, होक्खामि - हो जाऊँगा, अचेलए - अचेलक - वस्त्र रहित, सचेलए - सचेलक - वस्त्र सहित, इइ - इस प्रकार, ण चिंतए - चिंतन नहीं करे।
भावार्थ - वस्त्रों के जीर्ण हो जाने पर मैं वस्त्र-रहित हो जाऊँगा, इस प्रकार अथवा वस्त्र सहित हो जाऊँगा, साधु इस प्रकार विचार न करे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में साधु को वस्त्रों के विषय में किसी भी प्रकार के ममत्व करने का निषेध किया गया है। . वस्त्र फट जाने पर साधु को भविष्य में वस्त्र न मिलने की आशंका से चिन्तित नहीं होना चाहिए और नये वस्त्र पाने की आशा से प्रसन्न भी नहीं होना चाहिये।
एगया अचेलए होइ, सचेले या वि एगया। एयं धम्महियं णच्चा, णाणी णो परिदेवए॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - एगया - कभी, धम्महियं - धर्म के लिए हितकारक, णाणी - ज्ञानी, णो परिदेवए - खेद नहीं करे।
भावार्थ - कभी (जिनकल्पी अवस्था में) साधु, वस्त्र-रहित होता है और कभी (स्थविरकल्पी अवस्था में) वस्त्र सहित होता है, इस प्रकार वस्त्र-रहित और वस्त्र-सहित, इन दोनों अवस्थाओं को धर्म के लिए हितकारी जान कर ज्ञानी पुरुष खेद नहीं करे। ...
. विवेचन - जिनकल्प और स्थविर कल्प दोनों ही साधु के शास्त्र विहित धर्म-आचार हैं। अतः दोनों ही धर्मों - आचारों को हित रूप जानकर विवेकी पुरुष को कभी खिन्न-चित्त नहीं होना चाहिये।
वस्त्रादि के अभाव से शीत आदि की बाधा का उपस्थित होना अनिवार्य है और किसी प्रकार के कष्ट से अरति का उत्पन्न होना भी अवश्यंभावी है अतः अब अरति परीषह का वर्णन करते हैं।
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