Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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परीषह - परीषहों का स्वरूप - उष्ण परीषह
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कठिन शब्दार्थ - उसिण - उष्णता (गरमी) के, परियावेणं - परिताप से, परिदाहेणसर्व प्रकार के दाह से, तजिए - तर्जित - 'पीड़ित, प्रिंसु - ग्रीष्म ऋतु, सायं - साता (सुख) का, परिदेवए - विलाप न करे। . भावार्थ - ग्रीष्म ऋतु में अथवा अन्य ऋतु में उष्ण स्पर्श वाले पृथ्वी शिला आदि के ताप से, शरीर के भीतर और बाहर के दाह (जलन) से और सूर्य के ताप से पीड़ित हुआ साधु सुख के लिए परिदेवना (विलाप) न करे कि यह ताप कब शान्त होगा?
विवेचन - इस गाथा में उष्ण परीषह के उपस्थित होने पर साधु को आर्तध्यान करने का निषेध किया गया है। शांति पूर्वक कष्ट सहन करने में दो लाभ हैं - १. कष्ट की निवृत्ति हो जाती है और २. कर्मों की निर्जरा होती है। अतः संयमी साधु को गरमी के परीषह को समभाव से सहन करना चाहिये।
उण्हाहितत्तो मेहावी, सिणाणं णो वि पत्थए। गायं ण परिसिंचेजा, ण वीएजा य अप्पयं॥॥
कठिन शब्दार्थ - उण्हाहि - उष्णता से, तत्तो - तप्त, मेहावी - मेधावी, सिणाणं - स्नान को, वि - कभी भी, णो पत्थए - इच्छा न करे, गायं - गात्र - शरीर को, ण परिसिंचेजा- जल से सिंचन न करे, ण वीएजा - पंखे से हवा न करे।
भावार्थ - गर्मी से अत्यंत पीड़ित होने पर भी बुद्धिमान् साधु स्नान की अभिलाषा न करे, शरीर को जल से न भिगोवे और अपने शरीर पर पंखे आदि से हवा नहीं करे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में उष्णता के कारण शरीर में उत्पन्न होने वाले परिताप की निवृत्ति के जितने भी बाह्य साधन हैं उन सब के उपयोग का साधु के लिए निषेध किया गया है। .
स्नान के दो भेद हैं - १. देश स्नान और २. सर्व स्नान। केवल हाथ मुंह आदि धोना देश स्नान है और सिर से लेकर पांव तक शरीर को धोना सर्व स्नान है। साधु के लिए दोनों प्रकार के स्नान त्याज्य हैं तथा जल बिन्दुओं का शरीर पर छींटना और पंखे की हवा करना, यह भी निषिद्ध है। अतः उष्ण परीषह को समभाव पूर्वक सहन करना ही साधुचर्या की सच्ची कसौटी है।
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