Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - द्वितीय अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
रूक्ष शरीर वाले, सीयं - शीत का, फुसइ - स्पर्श हो, एगया - कभी, ण - नहीं, अइवेलं - काल का उल्लंघन करके, गच्छे - जावे, सुच्चाणं - सुनकर, जिणसासणं - जिन (भगवान्) के शासन को।
भावार्थ - अग्नि आदि के आरम्भ से निवृत्त रूक्ष शरीर वाले साधु को संयम मार्ग में विचरते हुए कभी शीतकाल में या अन्य समय में ठंड लगे तो साधु जिनागम को सुन कर साधुमर्यादा या स्वाध्याय आदि की वेला का अतिक्रमण कर एक स्थान से दूसरे स्थान न जावे। .
विवेचन - यदि किसी स्थान पर साधु को शीत की बाधा उपस्थित हो जावे तो साधु अपने स्वाध्याय के समय की अवहेलना करके शीत की निवृत्ति के लिए किसी अन्य स्थान में जाने की कोशिश न करे किन्तु भगवान् की साधु धर्म संबंधी शिक्षा का विचार करता हुआ उस असह्य शीत परीषह को सहन करने में ही अपने दृढ़तर संयम का परिचय देवें।
ण मे णिवारणं अत्थि, छवित्ताणं ण विजइ। अहं तु अग्गिं सेवामि, इइ भिक्खू ण चिंतए॥७॥
कठिन शब्दार्थ - णिवारणं - शीत निवारक स्थान, ण अत्थि - नहीं है, छवित्ताणं - शरीर रक्षक कम्बल आदि, ण विजइ - नहीं है, अहं - मैं, तु - तो, अग्गिं - अग्नि का, सेवामि - सेवन कर लूं, इइ - इस प्रकार, ण चिंतए - न सोचे।
भावार्थ - शीत एवं वायु के बचाने वाले मकान आदि मेरे पास नहीं हैं और न मेरे पास शरीर की रक्षा करने वाले, वस्त्र - कम्बल आदि हैं, इसलिए मैं तो अग्नि का सेवन कर लूं, इस प्रकार साधु सेवन करना तो दूर रहा, विचार भी नहीं करे।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में आगमकार साधु को अग्नि सेवन का निषेध करते हैं। क्योंकि अग्नि शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार सचित्त वस्तु है, अग्निकाय के जीवों का ही एक पिण्डमात्र है इसलिए किसी शीत निवारक स्थान के न होने पर और शीत से रक्षा करने वाले कम्बल आदि वस्त्र का संयोग न होने पर भी साधु अग्नि का स्पर्श न करे किन्तु शीत की उस असह्य वेदना को समभाव पूर्वक सहन कर लेवें।
a उष्ण परीवह उसिण-परियावेणं, परिदाहेण तजिए। प्रिंस वा परियावेणं, सायं णो परिदेवए॥८॥
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