Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
उत्तराध्ययन सूत्र - द्वितीय अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
२८
सत्कार पुरस्कार; इन सात परीषहों का कारण है। वेदनीय कर्म क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, शय्या, वध, रोग, तृण स्पर्श और जल्ल इन ग्यारह परीषहों का कारण है। .
परीषह-निरूपण द्वितीय अध्ययन में परीषहों का विस्तृत वर्णन है। इस का प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं - :
सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सुच्चा णच्चा ज़िच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो णो विणिहण्णेजा।।
कठिन शब्दार्थ - सुयं मे - मैंने सुना है, आउसं - हे आयुष्मन्, एवं - इस प्रकार, अक्खायं - प्रतिपादन किया है, इह - इस, जिनशासन में, बावीसं - बाईस, परीसहा - परीषह, समणेणं - श्रमण, भगवया - भगवान्, महावीरेणं - महावीर, कासवेणं - काश्यप गोत्री ने, पवेइया - बतलाये हैं, जे - जिनको, भिक्खू - साधु, सोच्चा - सुन कर, णच्चाजान कर, जिच्चा - परिचित होकर, अभिभूय - जीत कर, भिक्खायरियाए - भिक्षाचर्या के लिए, परिव्वयंतो - पर्यटन करता हुआ, पुट्ठो - स्पृष्ट होने पर, णो विणिहणेजा - विचलित न होवें।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! मैंने सुना है उन भगवान् ने इस प्रकार कहा है, यहाँ जिन प्रवचन में काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बाईस परीषह कहे हैं, जिन्हें सुनकर, उनके स्वरूप को जान कर परिचित हो कर और जीत कर साधु भिक्षाचर्या में जाते हुए उन परीषहों के उपस्थित होने पर संयम से विचलित न होवे।
विवेचन - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से परीषहों का वर्णन करते हुए * उसको प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए अपनी श्रुति परम्परा का भी उल्लेख करते हैं। यथा -
हे आयुष्मन्! मैंने सुना है कि उस जगत् प्रसिद्ध सर्वेश्वर्य सम्पन्न भगवान् ने इस रीति से प्रतिपादन किया है।
शंका - किस स्थान पर प्रतिपादन किया है?
समाधान - इस प्रवचन में प्रतिपादन किया है कि काश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बाईस परीषह बतलाये हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org