Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - पहला अध्ययन
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पर आन्तरिक प्रेम न रखना, मानसिक अविनय है। वचनों के द्वारा उनकी भर्त्सना करना, वाचिक अविनय है। गुरुजनों के आसनादि को उनकी आज्ञा के बिना स्पर्श करना, उनके निजी उपकरणों की आशातना करना आदि कायिक अविनय कहलाता है।
कायिक अविनय __ण पक्खओ ण पुरओ, णेव किच्चाण पिट्टओ।
ण जुंजे उरुणा उरूं, सयणे ण पडिस्सुणे॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - पक्खओ - पक्ष - बराबर में, पुरओ - आगे, किच्याण - वंदनीय आचार्यों के, पिट्ठओ - पीठ करके बैठना, जुंजे - जोड़े, उरुणा - घुटने से, ऊ5 - घुटने को, सयणे - शय्या पर बैठा या सोया हुआ, पडिस्सुणे - सुने।
भावार्थ - विनीत शिष्य को चाहिए कि वह आचार्य महाराज के लगता हुआ - पास में बराबर न बैठे, उनके आगे भी न बैठे और पीछे भी अविनीतपन से न बैठे तथा गुरु महाराज के इतना निकट भी न बैठे कि अपनी जांघ से उनकी जांघ का स्पर्श हो अर्थात् उनके शरीर का स्पर्श हो इस तरीके से तथा शय्या पर सोते या बैठे हुए ही गुरु महाराज के वचन नहीं सुने किन्तु आसन से नीचे उतर कर उत्तर देवे।
णेव पल्हत्थियं कुजा, पक्खपिंडं च संजए। पाए पसारिए वावि, ण चिट्टे गुरुणंतिए॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - पल्हत्थियं - पर्यस्तिका - पालथी लगा कर, पक्खपिंडं - पक्ष पिण्डदोनों भुजाओं से घुटनों को आवेष्टित, संजए - संयमी साधु, पाए - पैरों को, पसारिए - फैला कर, ण चिट्टे - न बैठे, गुरुणंतिए - गुरुओं के समीप में। ___भावार्थ - विनीत साधु पलाठी मार कर अथवा पक्षपिंड कर के न बैठे और गुरु महाराज के सामने पाँव पसार कर भी न बैठे।
विवेचन - उपरोक्त दोनों गाथाओं में सूत्रकार ने शिष्य की उन शारीरिक चेष्टाओं का 'निषेध किया है जिसके द्वारा गुरुजनों का अपमान सूचित होता हो।
अपनी छाती के निकट घुटनों को खड़ा कर के उनको वस्त्र से बांध कर बैठना पल्हथीपलाठी कहलाता है और उन्हें दोनों भुजाओं द्वारा बांध कर बैठना ‘पक्खपिंड' - पक्षपिंड कहलाता है। शिष्य गुरु महाराज के सामने इस आसनों से नहीं बैठे।
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