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किन्तु प्रतियोगिता के द्वारा ही अभावों में वैलक्षण्य आ सकता है। अतः यह कहा जाता है कि अभाव की प्रतियोगितायें किसी सम्वन्ध से एवं किसी धर्म से नियमित (अविच्छिन्न ) होती हैं। जो प्रतियोगिता जिस सम्बन्ध से एवं जिस धर्म से अविच्छिन्न ( नियमित ) होगी, वही सम्बन्ध और वही धर्म उस प्रतियोगिता का अवच्छेदक होगा। जैसे कि 'समवायेन घटो नास्ति' इस अभाव की प्रतियोगिता समवाय सम्बन्ध और घटत्व धर्म से अवच्छिन्न है। अतः उक्त अभाव का प्रतियोगितावच्छेदक सम्बन्ध समवाय है, और प्रतियोगितावच्छेदक धर्म घटत्व है। तदनुसार नवीन नैयायिक समवायेन घटो नास्ति' इस वाक्य का अर्थ करते हैं-- “समवायसम्बन्धावच्छिन्नघटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावोऽस्ति ।
___ सम्बन्ध को अभाव का प्रतियोगितावच्छेदक मानने में यह युक्ति है कि सामान्यतः किसी भी वस्तु का अभाव कहीं भी नहीं है। अन्ततः कालिक सम्बन्ध से सभी वस्तुएँ सभी जगह वर्तमान हैं। अतः जब भी किसी वस्तु का अभाव कहीं व्यवहृत होता है, तो उसके मध्य में कोई विशेष प्रकार का सम्बन्ध कार्य करता रहता है। सम्बन्ध का यह कार्य प्रतियोगिता में वैलक्षण्य सम्पादन के द्वारा ही हो सकता है, और किसी प्रकार नहीं। जिस सम्बन्ध से जो वस्तु जहाँ नहीं है, वही सम्बन्ध उस अभाव की प्रतियोगिता में और अभाव की प्रतियोगिताओं से वैलक्षण्य का सम्पादन करता है । अतः वही सम्बन्ध उस अभाव की प्रतियोगिता का 'अवच्छेदक' है। एवं वह प्रतियोगिता उस सम्बन्ध से अवच्छिन्ना होती है। जैसे कि भूतल में संयोग सम्बन्ध से घट के रहते हुए समवायेन घटो नास्ति' इस प्रकार का जो अभाव रहता है, उस अभाव की प्रतियोगिता में समवाय सम्बन्ध ही ( संयोगसम्बन्धावच्छिन्नघटनिष्ठप्रतियोगिता की अपेक्षा) वैलक्षण्य का सम्पादन करता है। अगर समवाय सम्बन्ध उक्त प्रतियोगिता में वैलक्षण्य का प्रयोजक न हो तो फिर घटनिष्ठ सभी प्रतियोगिताएँ समान रह जाएगी। जिससे जिस प्रकार भूतल में संयोग सम्बन्ध से घट के रहते हुए संयोगेन घटो नास्ति' यह प्रतीति नहीं होती है, उसी प्रकार 'समवायेन घटो नास्ति' यह प्रतीति भी न हो सकेगी। अतः 'समवायेन घटो नास्ति' इस अभाव की प्रतियोगिता में और प्रतियोगिताओं से वैलक्षण्य का सम्पादक समवाय सम्बन्ध को मानना पड़ेगा। सम्बन्धों में प्रतियोगिताओं का यह 'विशेषकत्व' ही सम्बन्ध का प्रतियोगितावच्छेकत्व है ।
धर्म को प्रतियोगिता का नियामक ( अवच्छेदक ) मानने में यह युक्ति है कि किस अभाव की प्रतियोगिता कहाँ कहाँ है ? एवं कहाँ नहीं ? इसके लिए प्रतियोगिता का कोई ऐसा नियामक ( अवच्छेदक) धर्म मानना पड़ेगा जो सभी प्रतियोगियों में रहे एवं अप्रतियोगिभूत वस्तुओं में न रहे। इसी नियामक धर्म को प्रतियोगिता का 'अवच्छेदक धर्म' कहते हैं, जो इस नियामक के द्वारा नियमित होता है, वह उस धर्म से 'अवच्छिन्न होता है। जैसे कि घटाभाव की प्रतियोगिता कहाँ कहाँ है ? एवं कहाँ कहाँ नहीं ? इस प्रश्न का यही उत्तर है कि घटत्वधर्म जहाँ कहीं भी है, उन सभी स्थानों में अर्थात् सभी घटों में घटाभाव की प्रतियोगिता है। एवं जिन सब स्थानों में घटत्व नहीं है अर्थात् घट से भिन्न पटादि सभी वस्तुओं में वह प्रतियोगिता नहीं है । अतः घटत्व
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