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( ४२ ) अभाव को प्रकृत रूप से समझने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ विषयों का परिचय देना आवश्यक समझता हूँ।
जिस प्रकार संयोगादि सभी सम्बन्धों का एक प्रतियोगी और एक अनुयोगी होता है उसी प्रकार सभी अभावों के भी प्रतियोगी और अनुयोगी होते हैं । प्रतियोगी शब्द यहाँ प्रतिपक्षी का बोधक है । अतः जो अभाव जिसका विरोधी अर्थात् प्रतिपक्ष होगा वही उसका प्रतियोगी होगा। फलतः अभाव जिस वस्तु का होगा, वही वस्तु उस अभाव का प्रतियोगी होगा । जैसे कि 'घट का अभाव. पट का अभाव, रूप का अभाव' इत्यादि रीति से जिसके सम्बन्ध से युक्त होकर जिस अभाव की प्रतीति होती है, वही उस अभाव का प्रतियोगी होता है । जैसे कि जहाँ पर घटाभाव रहेगा, वहाँ घट नहीं रहेगा, अतः घटाभाव घट का विरोधी है। एवं घट का अभाव ही घटाभाव है, अतः घटाभाव का प्रतियोगी घट है। एवं पटाभाव का प्रतियोगी पट है, रूपाभाव का प्रतियोगी रूप है ।
___ जो अभाव जिस आश्रयीभूत वस्तु में रहेगा, वही वस्तु उस अभाव का अनुयोगी होगा। जैसे कि वायु रूपाभाव का अनुयोगी है, घटादि जड़ पदार्थ ज्ञानाभाव के अनुयोगी हैं।
कथित प्रतियोगी में रहनेवाला धर्म ही प्रतियोगित्व या प्रतियोगिता है, एवं कथित अनुयोगी में रहनेवाला धर्म ही अनुयोगिता है ।
इस प्रसङ्ग में यह विशेष रूप से विचारणीय है कि एक स्थान में एक सम्बन्ध से विद्यमान वस्तु का भी दूसरे सम्बन्ध से उसी स्थान में अभाव रहता है। जैसे कि भूतल में संयोग सम्बन्ध से घट के रहने पर भी समवाय सम्बन्ध से भूतल में घट का अमाव रहता है। इसी प्रकार एक स्थान में एक रूप से एक वस्तु की सत्ता रहने पर भी दूसरे रूप से उसी वस्तु का अभाव उसी आश्रय में रहता है। जैसे कि किसी गृह में पटत्व रूप से शुक्ल पट के रहने पर भी नीलपट रूप विशेष रूप से पट नहीं रहता, अतः उक्त शुक्लपट के आश्रय गृह में 'नीलपटत्वेन पटो नास्ति' यह ( विशेष रूप से सामान्याभाव ) अभाव रहता है। क्योंकि शुक्ल पट की सत्ता गृह में है, इससे नीलपट की सत्ता गृह में नहीं रह जाती । एवं वही पट जब घर से बाहर रहता है, उस समय उसमें बहिवृत्तित्व रूप धर्म रहता है। इस बहिवृत्तित्व रूप से पट कमी भी घर मैं नहीं रह सकता। अतः घर में पट की सत्त्व-दशा में पटत्वेन पट के रहते हुए भी बहिवृत्तित्वेन पट का अभाव रहता है । एवं जिस समय घर में पट तो है, किन्तु घट नहीं है, उस समय केवल घट के रहने पर भी घट पट दोनों नहीं है। अतः पटत्वेन पट की सत्ता घर में रहने पर भी घटपटोभयत्वेन पट की सत्ता नहीं है। क्योंकि ऐसा तो नहीं कह सकते कि घट है इस लिए घट और पट दोनों ही है । अतः उभयाभाव के एक प्रतियोगी के रहने पर भी उभयत्वेन उसी प्रतियोगी का अभाव रहता है। इसको ही 'एकसत्त्वेऽपि द्वयं नास्ति' इस वाक्य के द्वारा व्यवहार करते हैं। इस प्रकार सम्बन्ध के द्वारा और धर्म के द्वारा अभावों में वैलक्षण्य होता है ।
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