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प्रचार किया, जिससे जनता को आचार - विषयक शिक्षा का भण्डार एक ही स्थान पर मिल जाये और उसको इसके लिए व्यर्थ इधर-उधर न भटकना पड़े ।
हम यह पहले भी कह चुके हैं कि धर्म के विषय में आचार का सबसे पहला स्थान है । उसका ज्ञान अवश्य करना चाहिए । बिना धर्म-विषयक ग्रन्थों का अध्ययन किए हुए कई एक व्यक्तियों की सच्ची श्रद्धा भी भ्रम-मूलक ज्ञान के कारण मिथ्या - मार्ग की ओर चली जाती है, अतः भ्रम निवारण के लिए पहले उसका सच्चा ज्ञान अवश्य कर लेना चाहिए, जो कि उस विषय के ग्रन्थों के स्वाध्याय या श्रवण के बिना नहीं हो सकता है । आत्म- हितैषी व्यक्तियों को उचित है कि आचार -शुद्धि के लिए इस अपूर्व ग्रन्थ का एक बार अवश्य अध्ययन करें, जिससे उनका आचार शुद्ध हो सके और वे मुक्ति-मार्ग की ओर भी अग्रसर हो सकें ।
यह जिज्ञासा पाठकों के चित्त में उठ सकती है कि क्या निर्युक्तिकार ने भी इस विषय में कुछ लिखा है कि श्री भद्रबाहु स्वामी ने अमुक-२ स्थल अमुक ग्रन्थ से उद्धृत किये हैं । उनके समाधान के लिए हम यह बताना आवश्यक समझते हैं कि नियुक्तिकार के मन्तव्य को ही टीकाकार ने नीचे लिखे शब्दों में स्पष्ट किया है- "तत्र तीर्थकरस्य सामायिकादिक्रमेण उपोद्घातः कृतः । आर्यसुधर्मणो जम्बूस्वामिनः प्रभवस्य शय्यंभवस्य यशोभद्रस्य संभूतविजयस्य ततो भद्रबाहोरवसर्पिण्यां पुरुषाणाम् आयुर्बलयोर्हानिं ज्ञात्वा चिन्ता समुत्पन्ना पूर्वगते व्युच्छिन्ने विशोधिं न ज्ञास्यन्तीति कृत्वा प्रत्याख्यानपूर्वाद् दशाकल्पव्यवहारान्निर्यूढ एष उपोद्घातः" इत्यादि कि कथन से सिद्ध होता है कि श्री भद्रबाहु स्वामी ने प्रत्याख्यानपूर्व से दशाश्रुतस्कन्ध बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों का उद्धार अर्थात् आचार आदि विषयों को भिन्न-भिन्न सूत्रग्रन्थों से एकत्रित करके उसको एक नये ग्रन्थ के रूप में जनता के सामने रखा ।
पदार्थ - निर्णय के विषय में वृत्तिकार लिखते हैं- "इह किल भद्रबाहुः स्वामी चतुर्दशपूर्वधरस्थूलभद्रस्वामिनं स्वशिष्यं प्रतिपादयाञ्चकार - श्रुतम् आकर्णितम्, गुरुपरम्परयेत्यादि” जहां दशा की समाप्ति हुई है, वहां (त्ति बेमि' इस पद पर वृत्तिकार लिखते हैं- "इति ब्रवीमि यद् भगवता सर्वविदोपदिष्टं मयाकर्णितम् इति तदहमपि भद्रबाहुस्वामी प्रतिपादयामीति भावः " इस कथन से भी भली भांति सिद्ध होता है कि श्री भगवान् के वचनों को ही श्री भद्रबाहु स्वामी ने उद्धृत किया है और वह भी प्रत्याख्यान पूर्व से ही । अतः यह सूत्र सर्वथा प्रमाण है और वास्तव में इसकी रचना गणधरों ने ही की है ।
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