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पंचमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
-ज्ञान और
पदार्थान्वयः - आउसो - हे आयुष्मन् शिष्य ! एवं इस प्रकार अभिसमागम्म - जानकर चित्तं - (राग और द्वेष से रहित) अन्तःकरण को आदाय धारण कर सेणि-सुद्धिदर्शन की शुद्ध श्रेणि को उवागम्म प्राप्त कर आया - आत्मा सुद्धि-शुद्धि उवागई-प्र - प्राप्त कर लेता है । त्ति बेमि- इस प्रकार मैं कहता हूं । इति- इस प्रकार पंचमा- पांचवीं दसा - दशा समत्ता - समाप्त हुई ।
मूलार्थ - हे आयुष्मन् शिष्य ! इस प्रकार (समाधि के भेदों को) जान कर, राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण कर और शुद्ध श्रेणि को प्राप्त कर आत्मा शुद्धि को प्राप्त करता है अर्थात् मोक्ष-पद को प्राप्त कर लेता है ।
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टीका- - इस सूत्र में प्रस्तुत दशा की समाप्ति की गई है । उपसंहार में शिष्य को आमन्त्रित करते हुए कहा गया है "हे आयुष्मन् शिष्य ! राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण करके आत्म-शुद्धि करनी चाहिए, क्योंकि आत्म-शुद्धि के प्रमुख बाधक राग और द्वेष ही हैं । यदि ये दोनों अन्तःकरण से निकल जायंगे तो आत्मा स्वयमेव शुद्ध हो जायगा । इसके अतिरिक्त पूर्वोक्त दश प्रकार के समाधि - स्थानों को भली भांति जानकर और इनके स्वरूप को ज्ञान द्वारा देखकर ज्ञान, दर्शन और चरित्र द्वारा आत्म-शुद्धि करनी चाहिए ।
'चित्त' शब्द ज्ञानार्थक भी है, अतः शुद्ध चित्त अर्थात् ज्ञान द्वारा आत्मचाहिए |
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सूत्र में बताया गया है कि शुद्ध श्रेणि प्राप्त कर आत्मा शुद्धि को प्राप्त होता है । श्रेणि दो प्रकार की वर्णन की गई है, द्रव्य - श्रेणि और भाव -श्रेणि । इनमें द्रव्य - श्रेणि प्रासादादि के आरोहण के लिए बनी हुई सीढ़ियों की पङ्क्ति के लिए कहते हैं । भाव - श्रेणि पुनः दो प्रकार की होती है, विशुद्ध भाव -श्रेणि और अविशुद्ध भाव - श्रेणि । अविशुद्ध भाव -श्रेणि के द्वारा आत्मा संसार-चक्र में भ्रमण करता है और विशुद्ध-भाव- श्रेणि से मोक्ष की ओर जाता है । अतः विशुद्ध भाव -श्रेणि ही कर्म-मल को हटाने में समर्थ हो सकती है। सूत्र में भी कहा गया है "अकडेवर सेणि मुसिया" इत्यादि । अतः यह सिद्ध हुआ कि शुद्ध श्रेणी कर्म-मल को दूर कर सकती है और उससे शुद्ध होकर आत्मा मोक्ष - पद की प्राप्ति करता है ।
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-शुद्धि करनी
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