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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
मासिक भिक्षु-प्रतिमां प्रतिपन्नस्यानगारस्य नित्यं व्युत्सृष्टकायस्य त्यक्तदेहस्य यदि केचिदुपसर्गा उत्पद्यन्ते, तद्यथा-दिव्या वा मानुषा वा तिर्यक्योनिका वा, तानुत्पन्नान् सम्यक् सहते, क्षमते, तितिक्षति, अध्यासति ।
सप्तमी दशा
पदार्थान्वयः - मासियं णं - मासिकी भिक्खु-पडिमं - भिक्षु की प्रतिमा पडिवन्नस्स - प्रतिपन्न अणगारस्स-गृह आदि से रहित निच्चं - नित्य वोसट्टकाए - शरीर के संस्कार को छोड़ने वाले चियत्तदेहे - शरीर के ममत्व भाव छोड़ने वाले को जे-यदि केइ कोई उवसग्गा-उपसर्ग उववज्जंति–उत्पन्न होते हैं तं जहा-जैसे दिव्वा वा - देव-सम्बन्धी अथवा माणुसा वा - मानुष-सम्बन्धी अथवा तिरिक्ख जोणिया-तिर्यग्योनि - सम्बन्धी, तं - उन उप्पण्णे - उत्पन्न हुए उपसर्गों को सम्मं - भली भांति सहति - सहन करता है खमति - क्षमा करता है तितिक्खति - अदैन्य-भाव अवलम्बन करता है अहियासेति - निश्चल योगों से काय को अचल बनाता है । णं-वाक्यालङ्कार के लिए है ।
मूलार्थ - मासिकी प्रतिमा-धारी, गृह-रहित, व्युत्सृष्टकाय (शारीरिक संस्कारों को छोड़ने वाले) त्यक्त-शरीर (जिसने शरीर का ममत्व छोड़ दिया है) साधु को यदि कोई उपसर्ग (विपत्ति) उत्पन्न हो जायं तो वह उनको क्षमा पूर्वक सहन कर लेता है और किसी प्रकार का दैन्य भाव नहीं दिखाता प्रत्युत अचल काय से उनको झेल लेता है ।
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टीका - इस सूत्र में प्रतिमा - धारी मुनि के उपनियमों का वर्णन किया गया है । जब मुनि पहली प्रतिमा को ग्रहण करे तो उसको उचित है कि वह अपने शरीर के संस्कारादि तथा ममत्व को दूर कर उपसर्गों का सहन करे । यद्यपि घर छोड़कर दीक्षा लेते समय ही भिक्षु अपने शरीर के संस्कारादि को छोड़ देता है, किन्तु प्रतिमा धारण करते समय इनके त्याग का विशेष ध्यान रखना चाहिए । इसी लिए सूत्रकार ने उसके लिए 'व्युत्सृष्ट- काय' और 'त्यक्त - देह' दो विशेषण दिये हैं । जैसे - "नित्यम् - अनवरतम्, दिवा रात्रौ च व्युत्सृष्टमिव-सुत्सृष्टं संस्काराकरणात्, कायः शरीरं येनासौ व्युत्सृष्ट- कायः, चीयते औदारिकादि - वर्गणायुद्गलैर्वृद्धिं प्राप्यत इति कायः । चियत्तदेह इति - अनेकपरिषह-सहनात्त्यक्तो देहो येन स त्यक्त - देह इत्यादि ।" अर्थात् संस्कारादि के न करने से जिसने काय को व्युत्सृष्ट (त्याग) कर दिया है और परिषहों के सहन करने से त्यक्त - देह हो गया है। वह देव, मानुष और तिर्यक् - योनि - सम्बन्धी उपसर्ग
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