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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
दिव्वं-देव सम्बन्धी वा-अथवा माणुस्सं-मनुष्य सम्बन्धी तिरिक्खजोणिया-तिर्यक् (पशु पक्षी आदि) सम्बन्धी उवसग्गा-उपसर्ग (विघ्न) समुप्पज्जेज्जा-उपस्थित हो जायं और ते-वे णं-वाक्यालङ्कार के लिए है उवसग्गा-उपसर्ग पयलिज्जा-ध्यान से हटावें वा-अथवा पवडेज्जा-कायोत्सर्गादि से गिरा तो से-उसको पयलित्तए वा-हटना अथवा पयडित्तए वा-ध्यान से च्युत होना णो कप्पइ-योग्य नहीं णं-पूर्ववत् । किन्तु यदि तत्थ-वहां उच्चार-पासवणं-उच्चार और प्रश्रवण की शङ्का उप्पाहिज्जा-उत्पन्न हो जाय तो से-उसको पुव्व-पडिलेहियंसि-पूर्व-प्रतिलिखित थंडिलंसि-स्थण्डिल पर उच्चार-पासवणं-उच्चार प्रश्रवण का परिठवित्तए-त्याग करना कप्पइ-योग्य है किन्तु से-उसको उच्चार-पासवणं-मल-मूत्र उगिण्हित्तए-रोकना णो कप्पइ-योग्य नहीं । फिर अहाविहिमेव-विधिपूर्वक ठाणं-कायोत्सर्गादि ठाइत्तए-करने चाहिएं अर्थात् पूर्ववत् ध्यानादि में लग जाना चाहिए । एवं-इस प्रकार खलु-निश्चय से एसा-यह पढमा-प्रथमा सत्त-सात राइंदिया-रात्रि और दिन की भिक्खु-पडिमा-भिक्षु-प्रतिमा अहासुत्तं-सूत्रों के अनुसार जाव-यावत् आणाए-आज्ञा से अणुपालित्ता-अनुपालन करने वाला भवइ-होता
मूलार्थ-पहली सात रात्रि और दिन की भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को शरीर सम्बन्धी मोह नहीं होता और वह सम्पूर्ण परीषहों को सहन करता है | उसको उचित है कि वह चतुर्थ भक्त पानी के बिना ग्राप या यावद्-राजधानी के बाहर उत्तान (चित्त लेटना) आसन पर, पार्श्व आसन पर या निषद्य आसन पर कायोत्सर्गादि करे । यदि वहां देव, मानुष या तिर्यग्योनि सम्बन्धी उपसर्ग उत्पन्न हों और उसको ध्यान से स्खलित या पतित करें तो उसको स्खलित या पतित होना उचित नहीं । यदि वहां उसको मल और मूत्र की शंका उत्पन्न हो जाय तो उसको वह रोकनी नहीं चाहिए । किन्तु किसी पहले ढूंढ़े हुए स्थान पर उनका उत्सर्ग कर ! यथाविधि अपने आसन पर आकर कायोत्सर्गादि क्रियाओं को करते हुए स्थिर रहना चाहिए । इस प्रकार यह पहली सात रात दिन की प्रतिमा सूत्रों के अनुसार श्री भगवान् की आज्ञा से निरन्तर पालन की जाती है |
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