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दशमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
मूलार्थ - हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार निर्ग्रन्थी निदान-कर्म करके और उसका गुरु से उस समय बिना आलोचन किये, बिना उससे पीछे हटे तथा बिना प्रायश्चित ग्रहण किये मृत्यु के समय काल करके किसी एक देव-लोक में देव रूप से उत्पन्न हो जाती है और वहां बड़े ऐश्वर्य और सुख वाला देव हो जाता है । फिर उस देव-लोक से आयु-क्षय होने के कारण बिना किसी अन्तर के देव-शरीर को छोड़कर जो ये उग्र-पुत्र
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हैं उनके कुल में बालक रूप से उत्पन्न होता है सेवक उसकी प्रार्थना करते हैं कि आपको कौन सा पदार्थ रुचिकर है । इस प्रकार का पुरुष केवलि - भाषित धर्म को सुनने के अयोग्य होता है । किन्तु वह बड़ी इच्छाओं वाला और दक्षिणगामी नैरयिक होता है और दुर्लभं बोधिक कर्म की उपार्जना करता है । इस प्रकार हे आयुष्मन् ! श्रमण ! वह केवलि-प्रतिपादित धर्म को सुन भी नहीं सकता ।
टीका - इस सूत्र में भी सब वर्णन पूर्ववत् ही है जब वह निर्ग्रन्थी उक्त रीति से निदान-कर्म करती है और उसका आलोचन नहीं करती तो मृत्यु के अनन्तर किसी एक देव-लोक में देव - रूप से उत्पन्न हो जाती है । फिर वहां से आयु-क्षय होने के कारण मनुष्य लोक में उग्र आदि कुल में कुमार - रूप से उत्पन्न हो जाती है । वहां वह पुरुष ऐश्वर्य में इस प्रकार लीन हो जाती है कि उसमें केवलि - प्रतिपादित धर्म को सुनने तक की शक्ति अवशिष्ट नहीं रहती क्योंकि सांसारिक काम-भोग उसको धर्म की ओर से अन्धा बना देते I
अब सूत्रकार पांचवें निदान कर्म के विषय में कहते हैं
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एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते इणमेव निग्गंथे वा (निग्गंथी वा ) सिक्खाए उवट्टिए विहरमाणे पुरादिगिंच्छाए जाव उदिण्ण-काम-भोगे विहरेज्जा, से य परक्कमेज्जा से य परक्कममाणे माणुस्सेहिं कामभोगेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा माणुस्सगा खलु
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