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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
दशमी दशा
भूत्वागारादनगारितां प्रव्रजेत् ? हन्त, प्रव्रजेत् । स न तेनैव भव-ग्रहणे सिद्ध्येद् यावत्सर्वदुःखानामन्तं कुर्यान्नायमर्थः समर्थः ।
पदार्थान्वयः-समणाउसो-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार निग्गंथो वा-निर्ग्रन्थ अथवा (निग्गंथी वा-निर्ग्रन्थी) णिदाणं-निदान-कर्म किच्चा-करके तस्स ठाणस्स-उसी स्थान पर अणालोइय-बिना उसका आलोचन किये उससे अप्पडिक्कते-बिना पीछे हटे सव्वं तं चेव-शेष वर्णन सब पूर्ववत् है । से णं-वह मुंडे भवित्ता-मुण्डित होकर आगाराओ-घर से निकल कर अणागारियं-अनगारिता-साधु-वृत्ति पव्वइज्जा-ग्रहण करेगा? गुरु कहते हैं हंता-हां, पव्वइज्जा-ग्रहण कर सकेगा । से णं-वह फिर तेणेव-उसी जन्म में भवग्गहणेणं-बार-२ जन्म ग्रहण करने में सिज्झेज्जा-सिद्ध होगा अर्थात् बार-२ जन्म-ग्रहण को रोक सकेगा और जाव-यावत् सव्वदुक्खाणं-सब दुःखों का अंत करेज्जा-अन्त करेगा णो तिण्टे समढे-यह बात सम्भव नहीं ।
मूलार्थ-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी निदान कर्म करके उसका उसी स्थान पर बिना आलोचन किये और उससे बिना पीछे हटे-शेष वर्णन पूर्ववत् ही है । क्या वह मुण्डित होकर और घर से निकल कर दीक्षा धारण कर सकता है ? हां, दीक्षा धारण कर प्रव्रजित हो सकता है | किन्तु वह उसी जन्म में भव-ग्रहण (बार-२ जन्म-ग्रहण) को रुद्ध कर सके और सब दुःखों का अन्त कर सके, यह बात सम्भव नहीं ।
टीका-इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि वह निदान-कर्म करने वाला व्यक्ति अपने संकल्पों के अनुसार उन्हीं कुलों में जन्म धारण करता है, जिनसे दीक्षा ग्रहण करते समय किसी प्रतिबन्धक के उपस्थित होने की संभावना न हो । तदनुसार ही वह दीक्षा ग्रहण कर भी लेता है, किन्तु निदान-कर्म करने का उसको यह फल मिलता है कि वह उसी जन्म में मोक्ष-प्राप्ति नहीं कर सकता, क्योंकि फल-स्वरूप वही कुल दीक्षा-ग्रहण में बाधक न होता हुआ भी मोक्ष प्राप्त करने में बाधक हो जाता है । यद्यपि उसके चित्त में संयम की रुचि अधिक थी तथापि उक्त कुलों में उत्पन्न होने की इच्छा-मात्र के कारण वह सब दुःखों का उसी जन्म में क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकता । हां, इतना अवश्य
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